Wednesday, 23 September 2020

कपालभाती

 


*जानिए कपालभाती के लाभ, और कैसे करें अभ्यास घर में?* 

 

कपालभाती को घर पर कैसे करें?


अपनी रीढ़ की हड्डी को सीधा रखते हुए पद्मासन, सुखासन या वज्रासन में बैठ जाएं। अपने हाथों को घुटनों पर रखें और एक लंबी गहरी सांस अंदर लें।


सांस छोड़ते हुए अपने पेट को अंदर की ओर खींचें। पेट की मांसपेशियों के सिकुड़ने को आप अपने पेट पर हाथ रखकर महसूस भी कर सकते हैं। नाभि को अंदर की ओर खींचें।

जैसे ही आप पेट की मांसपेशियों को ढीला छोड़ते हैं, सांस अपने आप ही आपके फेफड़ों में पहुंच जाती है।


कपालभाती 5 मिनट से शुरू करके 10 और 30 मिनट तक किया जा सकता है।

कपालभाती प्राणायाम करते समय जोर से सांस को बाहर छोड़ें।

सांस लेने के लिए अधिक चिंता न करें।

आप जैसे ही अपने पेट की मांसपेशियों को ढीला छोड़ते हैं, आप अपने आप ही श्वास लेने लगते हैं।



कपालभाती के लाभ

यह पाचन क्रिया को अच्छा करता है और पोषक तत्वों को बढ़ाता है।

यह वजन कम करने में मदद करता है।

नाड़ियों का शुद्धिकरण करता है।

रक्त शुद्ध होता है और चेहरे पर चमक बढ़ाता है।

मस्तिष्क और तंत्रिका तंत्र को ऊर्जावान करता है।

मन को शांत करता है।

कपालभाती से एसिडिटी व गैस जैसी समस्याओं से राहत मिलती है।

संगठन



एक आदमी था, जो हमेशा अपने संगठन में सक्रिय रहता था l उसको सभी जानते थे, बड़ा मान सम्मान मिलता था lअचानक किसी कारण वश वह निश्क्रिय रहने लगा , मिलना - जुलना बंद कर दिया और संगठन से दूर हो गया।


कुछ सप्ताह पश्चात् एक बहुत ही ठंडी रात में , उस संगठन के मुखिया ने उससे मिलने का फैसला किया । मुखिया उस आदमी के घर गया और पाया कि आदमी घर पर अकेला ही था। एक बोरसी में जलती हुई लकड़ियों की लौ के सामने बैठा आराम से आग ताप रहा था। उस आदमी ने आगंतुक मुखिया का बड़ी खामोशी से स्वागत किया।


दोनों चुपचाप बैठे रहे। केवल आग की लपटों को ऊपर तक उठते हुए ही देखते रहे। कुछ देर के बाद मुखिया ने बिना कुछ बोले, उन अंगारों में से एक लकड़ी जिसमें लौ उठ रही थी (जल रही थी) उसे उठाकर किनारे पर रख दिया और फिर से शांत बैठ गया।


मेजबान हर चीज़ पर ध्यान दे रहा था। लंबे समय से अकेला होने के कारण मन ही मन आनंदित भी हो रहा था कि वह आज अपने संगठन के मुखिया के साथ है। लेकिन उसने देखा कि अलग की हुई लकड़ी की आग की लौ धीरे धीरे कम हो रही है। कुछ देर में आग बिल्कुल बुझ गई। उसमें कोई ताप नहीं बचा। उस लकड़ी से आग की चमक जल्द ही बाहर निकल गई।


कुछ समय पूर्व जो उस लकड़ी में उज्ज्वल प्रकाश था और आग की तपन थी *वह अब एक काले और मृत टुकड़े से ज्यादा कुछ शेष न था।* 


इस बीच.. दोनों मित्रों ने एक दूसरे का बहुत ही संक्षिप्त अभिवादन किया, कम से कम शब्द बोले। जानें से पहले मुखिया ने अलग की हुई  बेकार लकड़ी को उठाया और फिर से आग के बीच में रख दिया। वह लकड़ी फिर से सुलग कर लौ बनकर जलने लगी और चारों ओर रोशनी तथा ताप बिखेरने लगी।


जब आदमी, मुखिया को छोड़ने के लिए दरवाजे तक पहुंचा तो उसने मुखिया से कहा मेरे घर आकर मुलाकात करने के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद । आज आपने बिना कुछ बात किए ही एक सुंदर पाठ पढ़ाया है कि *अकेले व्यक्ति का कोई अस्तित्व नहीं होता, संगठन का साथ मिलने पर ही वह चमकता है और रोशनी बिखेरता है संगठन से अलग होते ही वह लकड़ी की भाँति बुझ जाता है।*


मित्रों संगठन से ही हमारी पहचान बनती है इसलिए संगठन हमारे लिए सर्वोपरि होना चाहिए । संगठन के प्रति हमारी निष्ठा और समर्पण किसी व्यक्ति के लिए नहीं,उससे जुड़े विचार के प्रति होनी चाहिए । 

संगठन किसी भी प्रकार का हो सकता है , (पारिवारिक , सामाजिक, व्यापारिक शैक्षणिक संस्थान, औधोगिक संस्थान, राजनैतिक , सांस्कृतिक इकाई , आदि ,)

संगठनों के बिना मानव जीवन अधूरा है , अतः हर क्षेत्र में जहाँ भी रहें संगठित रहें l 

 

 जय मातृभूमि     जय भारत

Saturday, 19 September 2020

एक पति की सलाह


यदि आप पति हो और कभी एकदम सुबह 4.00 बजे जाग जाओ, और चाय पीने की इच्छा हो जाए, जो कि......स्वाभाविक है,‌ तो आप सोचेंगे कि.....चाय खुद ही बनाऊं या प्रिय अर्धांगिनी को जगाने का दुःसाहस करूँ.....? 


दोनों ही स्थितियों में आपको निम्नलिखित भयंकर परिस्थितियों का सामना करना पड़ सकता है... 

और आप कुछ भी करो, आपको..."चार बातें"...तो सुननी ही हैं, जो ‌कि वास्तव में 40-50 से कम नहीं होती हैं...||

...

...

● पहली परिस्थिति:---


*आपने खुद ही चाय बनाई...!!*


आपने यदि खुद चाय बना ली, तो सुबह-सुबह *ब्रह्म- मुहूर्त* में *आठ बजे* जब भार्या जागेगी तब, आपको सुनना ही है:----

*क्या ज़रूरत थी खुद बनाने की, मुझे जगा देते, पूरी पतीली "जला कर", रख दी, और वह "दूध की पतीली" थी, "चाय वाली" नीचे रखी है "दाल भरकर"....!!*

...

...

*विश्लेषण:----* ‌चाय खुद बनाने से पत्नी दुखी हुई / शर्मिंदा हुई / अपने अधिकार क्षेत्र में घुसपैठ से भयाक्रांत हुई / या कुछ और, आप कभी भी समझ नहीं पाएंगे, दूसरा ये कि......


"दूध की पतीली" में "चाय" बनाना तो गुनाह है, लेकिन "चाय की पतीली" में "दाल" भरकर रखी जा सकती है....??

...

...

● दूसरी परिस्थिति:---


*आपने पत्नी को चाय बनाने के लिए जगा दिया...!!*


यदि आपने गलती से भी पत्नी को जगा दिया तो, आप सुनने के लिए तैयार रहिए:---- 


"मेरी तो किस्मत ही ख़राब है, एक काम नहीं आता इस आदमी को, पिताजी ने जाने क्या देखा था, 

आधी रात को चाय चाहिए इन्हें....

अभी अभी तो, पीठ सीधी की थी, बस आँख लगी ही थी और इनकी फरमाइशें हैं कि, ख़त्म ही नहीं हो रही हैं, न दिन देखते हैं, न रात....

*चाय बनकर, पी कर ख़त्म भी हो जाएगी पर 'श्लोक-सरिता' का प्रवाह अनवरत, अविरल चलता ही रहेगा...!!*

...

...

● तीसरी परिस्थिति:---


एक अन्य विचित्र परिस्थिति....!!


यदि आप चाय खुद बना रहे हैं.......

और शक्कर के डिब्बे में शक्कर आधा चम्मच बची है, तो आपके दिमाग में विचार आएगा ही कि *बड़े डिब्बे* से निकालकर इसमें *टॉप-अप* कर देता हूँ, यदि आपने ऐसा किया तो पता है क्या सुनोगे....?? 

शायद आप सोच रहे होंगे कि, आपने बहुत शाबाशी वाला काम किया, नहीं..


 बल्कि आपको....शर्तिया ये सुनना पड़ेगा -- 

*"किसने कहा था शक्कर निकालने को ? मुझे वह डिब्बा, आज मँजवाना था"*

...

...

निष्कर्ष:----संसार में पत्नी की नजरों में पति नाम का जो जीव होता है, उसमे अकल का बिल्कुल ही अभाव होता है...!! 


"सर्व-गुण-संपन्न"......

तो उसके पापा"होते हैं, और या जीजाजी"..???


इसलिए सभी पतियों को, मेरी सलाह है कि, कभी सुबह-सुबह नींद खुल जाए, तो वापस मुँह ढक कर सो जाएं, उसी में भलाई है...!!

🌹 गुफ़्तगू 🌹


उसने कहा- बेवजह ही 

खुश हो क्यों?

मैंने कहा- हर वक्त 

दुखी भी क्यों रहूँ !


उसने कहा- जीवन में  

बहुत गम हैं, 

मैंने कहा -गौर से देख,

खुशियां भी कहाँ कम हैं। 


उसने तंज़ किया - 

ज्यादा हँस मत, 

नज़र लग  जाएगी, 

मेरा ठहाका बोला- 

मेरी हँसी देख कर ही, 

फिसल जाएगी। 


उसने कहा- नहीं होता

क्या तनाव कभी ?

जवाब दिया- मैंने ऐसा 

तो कहा नहीं!


उसकी हैरानी बोली- 

फिर भी यह हँसी? 

मैंने कहा-डाल ली आदत

हर घड़ी मुसकुराने की! 


फिर तंज़ किया-अच्छा!!

बनावटी हँसी, इसीलिए 

परेशानी दिखती नहीं। 

मैंने कहा- 

अटूट विश्वास है, 

प्रभु मेरे साथ है, 

फिर चिंता-परेशानी की

क्या औकात है। 

कोई मुझसे "मैं दुखी हूँ"

सुनने को बेताब था, 

इसलिए प्रश्नों का 

सिलसिला भी 

बेहिसाब था


पूछा - कभी तो 

छलकते होंगे आँसू ?

मैंने कहा-अपनी 

मुसकुराहटों से बाँध 

बना लेती हूँ,

अपनी हँसी कम पड़े तो 

कुछ और लोगों को 

हँसा देती हूँ ,

कुछ बिखरी ज़िंदगियों में

उम्मीदें जगा देती हूँ...

यह मेरी मुसकुराहटें 

दुआऐं हैं उन सबकी

जिन्हें मैंने तब बाँटा, 

जब मेरे पास भी 

कमी थी।

Friday, 18 September 2020

बैलेंस डाइट क्या होती है

 बैलेंस डाइट क्या होती है, अच्छे स्वास्थ्य के लिए क्यों है जरूरी

 

एनर्जी:


दैनिक काम के लिए एक निश्चित ऊर्जा की जरूरत होती है। एनर्जी की आपको सही मात्रा कार्बोहाइड्रेट से मिलती है। कार्बोहाइड्रेट अनाजों, गेहूं, बाजरा व ओट्स में पाया जाता है। फल और कई तरह की फलियों से भी कार्बोहाइड्रेट शरीर को मिलता है। इसलिए एनर्जी के लिए कार्बोहाइड्रेट को सही मात्रा में अपनी डाइट में शामिल करना चाहिए।


प्रोटीन:

प्रोटीन बेहतर स्वास्थ्य के लिए बहुत आवश्यक है। इम्यून सिस्टम को मजबूत बनाए रखने से लेकर शरीर की मांसपेशियों को मजबूत बनाए रखने तक प्रोटीन बहुत आवश्यक है। इसको सही मात्रा में लेना जरूरी होता है। दूध और दूध से बने खाद्य पदार्थों में प्रोटीन भरपूर मात्रा में पाया जाता है। इसके अलावा दाल, मछली, अंडा और चिकन भी प्रोटीन के प्रमुख स्रोत हैं।


फैट:

फैट भी हमारी डाइट में बहुत जरूरी होता है लेकिन सही मात्रा में। इसके लिए आपको अपने डाइटिशियन की सलाह लेना आवश्यक है। आपके शरीर में हेल्दी फैट आपको तंदुरुस्त रखने में मदद करता है।


दूध:

दूध और दूध से बने खाद्य पदार्थ शरीर को जरूरी क्वालिटी प्रोटीन प्रदान करते हैं।


सब्जियां और फल:

सब्जियों और फलों में कई पोषक तत्व होते हैं, जो स्वस्थ शरीर के लिए आवश्यक होते हैं। इनको डाइट में सही मात्रा में शामिल करना बहुत जरूरी है।

कान की आत्मकथा





मैं कान हूँ........

हम दो हैं...

दोनों जुड़वां भाई...


लेकिन...........

हमारी किस्मत ही ऐसी है....


कि आज तक हमने एक दूसरे को देखा तक नहीं 😪


पता नहीं.. 

कौन से श्राप के कारण हमें विपरित दिशा में चिपका कर भेजा गया है 😠...


दु:ख सिर्फ इतना ही नहीं है...

 

हमें जिम्मेदारी सिर्फ सुनने की मिली है......


गालियाँ हों या तालियाँ..,

अच्छा हो या बुरा..

सब 

हम ही सुनते हैं...


धीरे धीरे हमें खूंटी समझा जाने लगा...


चश्मे का बोझ डाला गया,


फ्रेम की डण्डी को हम पर फँसाया गया...


ये दर्द सहा हमने...


क्यों भाई..???


चश्मे का मामला आंखो का है

तो हमें बीच में घसीटने का

मतलब क्या है...???


हम बोलते नहीं 


तो क्या हुआ, 


सुनते तो हैं ना...


हर जगह बोलने वाले ही क्यों आगे रहते है....???


बचपन में पढ़ाई में 

किसी का दिमाग

काम न करे तो

मास्टर जी हमें ही मरोड़ते हैं 😡...


जवान हुए तो

आदमी,औरतें सबने सुन्दर सुन्दर लौंग,बालियाँ, झुमके आदि बनवाकर हम पर ही लटकाये...!!!


 छेदन हमारा हुआ,

और तारीफ चेहरे की ...!


और तो और...

श्रृंगार देखो... 

आँखों के लिए काजल...

मुँह के लिए क्रीमें...

होठों के लिए लिपस्टिक...

हमने आज तक कुछ माँगा हो तो बताओ...


कभी किसी कवि ने, 

शायर ने 

कान की कोई तारीफ की हो तो बताओ...


इनकी नजर में आँखे, होंठ, गाल,ये ही सब कुछ है...


हम तो जैसे किसी मृत्युभोज की

बची खुची दो पूड़ियाँ हैं..,


जिसे उठाकर चेहरे के साइड में  चिपका दिया बस...


और तो और,


कई बार बालों के चक्कर में हम पर भी कट लगते हैं... 


हमें डिटाॅल लगाकर पुचकार दिया जाता है...


बातें बहुत सी हैं, 

किससे कहें...???


कहते है दर्द बाँटने से मन हल्का 

हो जाता है...


आँख से कहूँ तो वे आँसू टपकाती हैं..

नाक से कहूँ तो वो बहता है...


मुँह से कहूँ तो वो हाय हाय करके रोता है...


और बताऊँ...


पण्डित जी का जनेऊ,

टेलर मास्टर की पेंसिल,

मिस्त्री की बची हुई गुटखे की पुड़िया

मोवाइल का एयरफोन सब हम ही सम्भालते हैं...


और 


आजकल ये नया नया मास्कका झंझट भी हम ही झेल रहे हैं...


कान नहीं जैसे पक्की खूँटियाँ हैं हम...और भी कुछ टाँगना, लटकाना हो तो ले आओ भाई...


तैयार हैं हम दोनों भाई...!¡!

कोरोना मुस्कान




          सरकारी हॉस्पिटल में एक व्यक्ति खांसता हुआ अंदर आया...सारा का सारा स्टाफ एकदम से सतर्क हो गया...सभी ने दौड़ कर उस व्यक्ति को पकड़ा। दूसरे ने उसके मुंह पर कसकर मास्क बांध दिया...डॉक्टर फटाफट उसका टेस्ट  करने में लग गए..उस व्यक्ति ने छटपटा कर लाख उनकी पकड़ से निकलने की कोशिश की परन्तु उसकी कोशिश नाकाम रही...उसने कुछ बताना चाहा पर किसी ने मुंह नही खोलने दिया..

जैसे तैसे उसका सैम्पल कलेक्ट हुआ और जांच के लिए भेज दिया गया...


     उसकी टेस्ट रिपोर्ट आई तो स्टॉफ ने राहत की सांस ली और उसे बताया गया कि चिंता करने की कोई बात नहीं है.. उसे कोरोना नहीं है...

डॉक्टर ने उससे बिगड़ते हुए पूछा कि तुम खांसते हुए अंदर क्यों आये थे..                            


       पहले से ही बौखलाया आदमी गुस्से में बड़बड़ाया हरामखोरों...मेरे छोटे भाई की बीवी यहाँ नर्स है.. हड़बड़ी में वो आज टिफिन नही लाई है ,मैं उसे देने आया था...और मैं जब भी छोटे भाई के घर जाता हूं तो खांस देता हूं ताकि बहू समझ जाये कि जेठजी आये हैं और वह सिर पर पल्लू रख ले....समझे! 


         सभी जेठजी से निवेदन है कि कृपया इस कोरोना काल में इस प्रथा का पालन न करें वरना घरवाले आपको कोरोना मरीज़ समझ कर क्वारंटाइन कर देंगे ..

धर्म परिवर्तन का नया नजरिया

 

#कॉपी_पेस्ट

हिंदू धर्म में सभी धर्मों का सम्मान करना सिखाया जाता है क्या यह विचारधारा ही उसके पतन का कारण है । क्या इस विचारधारा को ठेस पहुंचाने में कोई कसर रखा जाता है जब किसी को धर्म निरपेक्ष को बरगला कर उसे अन्य धर्म में परिवर्तित करना । हमें लगता है इस भोली भाली विचारधारा खत्म करने वाले को भगवान सद्बुद्धी दे ।

अब आगे

कल किसी काम से अचानक उज्जैन जाना हुआ। रास्ते में मुझे बहुत ही अजीब सा दृश्य दिखा। एक जगह लिखा हुआ था मसीही मंदिर चर्च। मुझे समझ नहीं आया। बाद में मैंने इंटरनेट पर जानकारी खंगाली तो पता चला कि भारत में इस तरह के कई मसीही मंदिर चर्च देशभर में तेजी से खुल रहे हैं। रोचक बात यह रही कि दुनिया में कहीं भी मुझे मसीही मस्जिद चर्च नहीं मिला। 

इसके बाद कई दोस्तों से बात की जो इन विषयों पर लंबे समय से काम कर रहे हैं। बातचीत में पता चला कि भारत में सफेदपोश धर्मांतरण का यह एक नायाब तरीका है। ग्रामीण क्षेत्रों में धर्मांतरण की गतिविधियों के दौरान मिशनरीज को यह समझ आया कि हमें भारत में अपने काम करने का तौर तरीका बदलना चाहिए। इससे न सिर्फ धर्मांतरण में तेजी आएगी बल्कि कोई हमारे ऊपर अंगुली भी नहीं उठा पाएगा। जब आप किसी को कहते हैं कि चलो चर्च चलते हैं तो वह संकोच करेगा या फिर मना भी कर सकता है। जब आप उसे कहेंगे कि चलो मसीही मंदिर चलते हैं तो वह तुरंत चला जाएगा। यह एक सोच है धीरे धीरे आपको किसी दूसरे धर्म से जोड़ने की। किसी भी धर्म से जुडऩे में कोई बुराई नहीं है और मैं खुद कहता हूं कि यदि आपको खुद कोई धर्म बेहतर लगे तो आप उसके अनुयायी बन सकते हैं। मुझे आपत्ति यहां पर प्लानिंग के साथ धर्मांतरण करने पर है। क्यों दुनिया के कुछ धर्म दूसरे धर्म के लोगों को बरगलाने फुसलाने में लगे रहते हैं। इस मसीही मंदिर चर्च में आने वाले लोगों की भीड़ देखिए। यह पुरानी फोटो है और इस तरह की सैकड़ों फोटो आपको मिल जाएंगी। यहां आने वाले सभी लोग या तो हिंदू हैं या फिर धर्मांतरित हिंदू। दुनिया में शायद हिंदू धर्म ही एकमात्र ऐसा धर्म है जिसके खिलाफ आप कुछ भी कर सकते हैं। आप दुनिया में कहीं भी एक मसीही मस्जिद चर्च बनाकर दिखाइए। आपको समझ आ जाएगा कि आप क्या कर रहे हैं। 

कई लोगों से बातचीत के बाद मुझे यह भी पता चला कि आदिवासी और वनवासी क्षेत्रों में जहां लोग चर्च में जाना पसंद नहीं करते वहां इन मसीही मंदिर चर्च में एक नई शुरुआत की गई है। इन मसीही मंदिरों में उनके स्थानीय त्योहार मनाए जाते हैं और उनके बहाने लोगों को वहां बुलाया जाता है। सही बात भी है। आपने एक बढिय़ा मंच दे दिया। यहां खानपान है, व्यवस्थाएं हैं, साजिश की बू में लपेटा हुआ प्रेम है और इसके साथ और भी बहुत कुछ है। कोई गांव वाला क्यों वहां अपना त्योहार मनाने नहीं जाएगा। 

एक पहलू तो यह भी है कि हिंदूओं ने खुद अपने धर्म को लावारिस छोड़ रखा है। इस तरह की कोई व्यवस्था या सोच पनप ही नहीं सकी जो हर हिंदू को इस बात का अहसास दिला सके कि तुम्हारे साथ कोई भी परेशानी आएगी तो समाज तुम्हारे साथ खड़ा होगा। जब आप किसी को लावारिस छोड़ देंगे तो वह वहीं जाएगा जहां उसे प्यार मिलेगा।

पापा की आवाज या घुटन








इस कहानी को पढ़कर आज आपको निर्णय करना होगा कि आप किस राह पर हैं??

*ऊंचा क़द*


*चार महीने बीत चुके थे, बल्कि 10 दिन ऊपर हो गए थे, किंतु बड़े भइया की ओर से अभी तक कोई ख़बर नहीं आई थी कि वह पापा को लेने कब आएंगे. यह कोई पहली बार नहीं था कि बड़े भइया ने ऐसा किया हो. हर बार उनका ऐसा ही रवैया रहता है. जब भी पापा को रखने की उनकी बारी आती है, वह समस्याओं से गुज़रने लगते हैं. कभी भाभी की तबीयत ख़राब हो जाती है, कभी ऑफिस का काम बढ़ जाता है और उनकी छुट्टी कैंसिल हो जाती है. विवश होकर मुझे ही पापा को छोड़ने मुंबई जाना पड़ता है. हमेशा की तरह इस बार भी पापा की जाने की इच्छा नहीं थी, किंतु मैंने इस ओर ध्यान नहीं दिया और उनका व अपना मुंबई का रिज़र्वेशन करवा लिया.*


दिल्ली-मुंबई राजधानी एक्सप्रेस अपने टाइम पर थी. सेकंड एसी की निचली बर्थ पर पापा को बैठाकर सामने की बर्थ पर मैं भी बैठ गया. साथवाली सीट पर एक सज्जन पहले से विराजमान थे. बाकी बर्थ खाली थीं. कुछ ही देर में ट्रेन चल पड़ी. अपनी जेब से मोबाइल निकाल मैं देख रहा था, तभी कानों से पापा का स्वर टकराया, “मुन्ना, कुछ दिन तो तू भी रहेगा न मुंबई में. मेरा दिल लगा रहेगा और प्रतीक को भी अच्छा लगेगा.”


*पापा के स्वर की आर्द्रता पर तो मेरा ध्यान गया नहीं, मन-ही-मन मैं खीझ उठा. कितनी बार समझाया है पापा को कि मुझे ‘मुन्ना’ न कहा करें. ‘रजत’ पुकारा करें. अब मैं इतनी ऊंची पोस्ट पर आसीन एक प्रशासनिक अधिकारी हूं. समाज में मेरा एक अलग रुतबा है. ऊंचा क़द है, मान-सम्मान है. बगल की सीट पर बैठा व्यक्ति मुन्ना शब्द सुनकर मुझे एक सामान्य-सा व्यक्ति समझ रहा होगा. मैं तनिक ज़ोर से बोला, “पापा, परसों मेरी गर्वनर के साथ मीटिंग है. मैं मुंबई में कैसे रुक सकता हूं?” पापा के चेहरे पर निराशा की बदलियां छा गईं. मैं उनसे कुछ कहता, तभी मेरा मोबाइल बज उठा. रितु का फोन था. भर्राए स्वर में वह कह रही थी, “पापा ठीक से बैठ गए न.”*

*“हां हां बैठ गए हैं. गाड़ी भी चल पड़ी है.”  “देखो, पापा का ख़्याल रखना. रात में मेडिसिन दे देना. भाभी को भी सब अच्छी तरह समझाकर आना. पापा को वहां कोई तकलीफ़ नहीं होनी चाहिए.”*


“नहीं होगी.” मैंने फोन काट दिया. “रितु का फोन था न. मेरी चिंता कर रही होगी.”

पापा के चेहरे पर वात्सल्य उमड़ आया था. रात में खाना खाकर पापा सो गए. थोड़ी देर में गाड़ी कोटा स्टेशन पर रुकी और यात्रियों के शोरगुल से हड़कंप-सा मच गया. तभी कंपार्टमेंट का दरवाज़ा खोलकर जो व्यक्ति अंदर आया, उसे देख मुझे बेहद आश्‍चर्य हुआ. मैं तो सोच भी नहीं सकता था कि रमाशंकर से इस तरह ट्रेन में मुलाक़ात होगी.

एक समय रमाशंकर मेरा पड़ोसी और सहपाठी था. हम दोनों के बीच मित्रता कम और नंबरों को लेकर प्रतिस्पर्धा अधिक रहती थी. हम दोनों ही मेहनती और बुद्धिमान थे, किंतु न जाने क्या बात थी कि मैं चाहे कितना भी परिश्रम क्यों न कर लूं, बाज़ी सदैव रमाशंकर के हाथ लगती थी. शायद मेरी ही एकाग्रता में कमी थी. कुछ समय पश्‍चात् पापा ने शहर के पॉश एरिया में मकान बनवा लिया. मैंने कॉलेज चेंज कर लिया और इस तरह रमाशंकर और मेरा साथ छूट गया.


*दो माह पूर्व एक सुबह मैं अपने ऑफिस पहुंचा. कॉरिडोर में मुझसे मिलने के लिए काफ़ी लोग बैठे हुए थे. बिना उनकी ओर नज़र उठाए मैं अपने केबिन की ओर बढ़ रहा था. यकायक एक व्यक्ति मेरे सम्मुख आया और प्रसन्नता के अतिरेक में मेरे गले लग गया, “रजत यार, तू कितना बड़ा आदमी बन गया. पहचाना मुझे? मैं रमाशंकर.” मैं सकपका गया. फीकी-सी मुस्कुराहट मेरे चेहरे पर आकर विलुप्त हो गई. इतने लोगों के सम्मुख़ उसका अनौपचारिक व्यवहार मुझे ख़ल रहा था.* वह भी शायद मेरे मनोभावों को ताड़ गया था, तभी तो एक लंबी प्रतीक्षा के उपरांत जब वह मेरे केबिन में दाख़िल हुआ, तो समझ चुका था कि वह अपने सहपाठी से नहीं, बल्कि एक प्रशासनिक अधिकारी से मिल रहा था. उसका मुझे ‘सर’ कहना मेरे अहं को संतुष्ट कर गया. यह जानकर कि वह बिजली विभाग में महज़ एक क्लर्क है, जो मेरे समक्ष अपना तबादला रुकवाने की गुज़ारिश लेकर आया है, मेरा सीना अभिमान से चौड़ा हो गया. कॉलेज के प्रिंसिपल और टीचर्स तो क्या, मेरे सभी कलीग्स भी यही कहते थे कि एक दिन रमाशंकर बहुत बड़ा आदमी बनेगा. हुंह, आज मैं कहां से कहां पहुंच गया और वह…


पिछली स्मृतियों को पीछे धकेल मैं वर्तमान में पहुंचा तो देखा, रमाशंकर ने अपनी वृद्ध मां को साइड की सीट पर लिटा दिया और स्वयं उनके क़रीब बैठ गया. एक उड़ती सी नज़र उस पर डाल मैंने अख़बार पर आंखें गड़ा दीं. तभी रमाशंकर बोला, “नमस्ते सर, मैंने तो देखा ही नहीं कि आप बैठे हैं.”  मैंने नम्र स्वर में पूछा, “कैसे हो रमाशंकर?”

“ठीक हूं सर.”

“कोटा कैसे आना हुआ?”

“छोटी बुआ की बेटी की शादी में आया था. अब मुंबई जा रहा हूं. शायद आपको याद हो, मेरा एक छोटा भाई था.”

“छोटा भाई, हां याद आया, क्या नाम था उसका?” मैंने स्मृति पर ज़ोर डालने का उपक्रम किया जबकि मुझे अच्छी तरह याद था कि उसका नाम देवेश था.

“सर, आप इतने ऊंचे पद पर हैं. आए दिन हज़ारों लोगों से मिलते हैं. आपको कहां याद होगा? देवेश नाम है उसका सर.”


पता नहीं उसने मुझ पर व्यंग्य किया था या साधारण रूप से कहा था, फिर भी मेरी गर्दन कुछ तन-सी गई.  उस पर एहसान-सा लादते हुए मैं बोला,“देखो रमाशंकर, यह मेरा ऑफिस नहीं है, इसलिए सर कहना बंद करो और मुझे मेरे नाम से पुकारो. हां तो तुम क्या बता रहे थे, देवेश मुंबई में है?”

“हां रजत, उसने वहां मकान ख़रीदा है. दो दिन पश्‍चात् उसका गृह प्रवेश है.

चार-पांच दिन वहां रहकर मैं और अम्मा दिल्ली लौट आएंगे.”

“इस उम्र में इन्हें इतना घुमा रहे हो?”  “अम्मा की आने की बहुत इच्छा थी. इंसान की उम्र भले ही बढ़ जाए, इच्छाएं तो नहीं मरतीं न.”

“हां, यह तो है. पिताजी कैसे हैं?”


“पिताजी का दो वर्ष पूर्व स्वर्गवास हो गया था. अम्मा यह दुख झेल नहीं पाईं और उन्हें हार्टअटैक आ गया था, बस तभी से वह बीमार रहती हैं. अब तो अल्ज़ाइमर भी बढ़ गया है.”

“तब तो उन्हें संभालना मुश्किल होता होगा. क्या करते हो? छह-छह महीने दोनों भाई रखते होंगे.” ऐसा पूछकर मैं शायद अपने मन को तसल्ली दे रहा था. आशा के विपरीत रमाशंकर बोला,  “नहीं-नहीं, मैं तो ऐसा सोच भी नहीं सकता. अम्मा शुरू से दिल्ली में रही हैं. उनका कहीं और मन लगना मुश्किल है. मैं नहीं चाहता, इस उम्र में उनकी स्थिति पेंडुलम जैसी हो जाए. कभी इधर, तो कभी उधर. कितनी पीड़ा होगी उन्हें यह देखकर कि पिताजी के जाते ही उनका कोई घर ही नहीं रहा. वह हम पर बोझ हैं.”


*मैं मुस्कुराया, “रमाशंकर, इंसान को थोड़ा व्यावहारिक भी होना चाहिए. जीवन में स़िर्फ भावुकता से काम नहीं चलता है. अक्सर इंसान दायित्व उठाते-उठाते थक जाता है और तब ये विचार मन को उद्वेलित करने लगते हैं कि अकेले हम ही क्यों मां-बाप की सेवा करें, दूसरा क्यों न करे.”*

*“पता नहीं रजत, मैं ज़रा पुराने विचारों का इंसान हूं. मेरा तो यह मानना है कि हर इंसान की करनी उसके साथ है. कोई भी काम मुश्क़िल तभी लगता है, जब उसे बोझ समझकर किया जाए. मां-बाप क्या कभी अपने बच्चों को बोझ समझते हैं? आधे-अधूरे कर्त्तव्यों में कभी आस्था नहीं होती रजत, मात्र औपचारिकता होती है और सबसे बड़ी बात जाने-अनजाने हमारे कर्म ही तो संस्कार बनकर हमारे बच्चों के द्वारा हमारे सम्मुख आते हैं. समय रहते यह छोटी-सी बात इंसान की समझ में आ जाए, तो उसका बुढ़ापा भी संवर जाए.”*


मुझे ऐसा लगा, मानो रमाशंकर ने मेरे मुख पर तमाचा जड़ दिया हो. मैं नि:शब्द, मौन सोने का उपक्रम करने लगा, किंतु नींद मेरी आंखों से अब कोसों दूर हो चुकी थी. रमाशंकर की बातें मेरे दिलोदिमाग़ में हथौड़े बरसा रही थीं. इतने वर्षों से संचित किया हुआ अभिमान पलभर में चूर-चूर हो गया था. प्रशासनिक परीक्षा की तैयारी के लिए इतनी मोटी-मोटी किताबें पढ़ता रहा, किंतु पापा के मन की संवेदनाओं को, उनके हृदय की पीड़ा को नहीं पढ़ सका. क्या इतना बड़ा मुक़ाम मैंने स़िर्फ अपनी मेहनत के बल पर पाया है. नहीं, इसके पीछे पापा-मम्मी की वर्षों की तपस्या निहित है.


आख़िर उन्होंने ही तो मेरी आंखों को सपने देखने सिखाए. जीवन में कुछ कर दिखाने की प्रेरणा दी. रात्रि में जब मैं देर तक पढ़ता था, तो पापा भी मेरे साथ जागते थे कि कहीं मुझे नींद न आ जाए. मेरे इस लक्ष्य को हासिल करने में पापा हर क़दम पर मेरे साथ रहे और आज जब पापा को मेरे साथ की ज़रूरत है, तो मैं व्यावहारिकता का सहारा ले रहा हूं. दो वर्ष पूर्व की स्मृति मन पर दस्तक दे रही थी. सीवियर हार्टअटैक आने के बाद मम्मी बीमार रहने लगी थीं.

एक शाम ऑफिस से लौटकर मैं पापा-मम्मी के बेडरूम में जा रहा था, तभी अंदर से आती आवाज़ से मेरे पांव ठिठक गए. मम्मी पापा से कह रही थीं, “इस दुनिया में जो आया है, वह जाएगा भी. कोई पहले, तो कोई बाद में. इतने इंटैलेक्चुअल होते हुए भी आप इस सच्चाई से मुंह मोड़ना चाह रहे हैं.”

“मैं क्या करूं पूजा? तुम्हारे बिना अपने अस्तित्व की कल्पना भी मेरे लिए कठिन है. कभी सोचा है तुमने कि तुम्हारे बाद मेरा क्या होगा?” पापा का कंठ अवरुद्ध हो गया था, किंतु मम्मी तनिक भी विचलित नहीं हुईं और शांत स्वर में बोलीं थीं, “आपकी तरफ़ से तो मैं पूरी तरह से निश्‍चिंत हूं. रजत और रितु आपका बहुत ख़्याल रखेंगे, यह एक मां के अंतर्मन की आवाज़ है, उसका विश्‍वास है जो कभी ग़लत नहीं हो सकता.”


इस घटना के पांच दिन बाद ही मम्मी चली गईं थीं. कितने टूट गए थे पापा. बिल्कुल अकेले पड़ गए थे. उनके अकेलेपन की पीड़ा को मुझसे अधिक मेरी पत्नी रितु ने समझा. यूं भी वह पापा के दोस्त की बेटी थी और बचपन से पापा से दिल से जुड़ी हुई थी. उसने कभी नहीं चाहा, पापा को अपने से दूर करना, किंतु मेरा मानना था कि कोरी भावुकता में लिए गए फैसले अक्सर ग़लत साबित होते हैं. इंसान को प्रैक्टिकल अप्रोच से काम लेना चाहिए. अकेले मैं ही क्यों पापा का दायित्व उठाऊं? दोनों बड़े भाई क्यों न उठाएं? जबकि पापा ने तीनों को बराबर का स्नेह दिया, पढ़ाया, लिखाया, तो दायित्व भी तीनों का बराबर है. छह माह बाद मम्मी की बरसी पर यह जानते हुए भी कि दोनों बड़े भाई पापा को अपने साथ रखना नहीं चाहते, मैंने यह फैसला किया था कि हम तीनों बेटे चार-चार माह पापा को रखेंगे. पापा को जब इस बात का पता चला, तो कितनी बेबसी उभर आई थी उनके चेहरे पर. चेहरे की झुर्रियां और गहरा गई थीं. उम्र मानो 10 वर्ष आगे सरक गई थी. सारी उम्र पापा की दिल्ली में गुज़री थी. सभी दोस्त और रिश्तेदार यहीं पर थे, जिनके सहारे उनका व़क्त कुछ अच्छा बीत सकता था, किंतु… सोचते-सोचते मैंने एक गहरी सांस ली.


*आंखों से बह रहे पश्‍चाताप के आंसू पूरी रात मेरा तकिया भिगोते रहे. उफ्… यह क्या कर दिया मैंने. पापा को तो असहनीय पीड़ा पहुंचाई ही, मम्मी के विश्‍वास को भी खंडित कर दिया. आज वह जहां कहीं भी होंगी, पापा की स्थिति पर उनकी आत्मा कलप रही होगी. क्या वह कभी मुझे क्षमा कर पाएंगी? रात में कई बार अम्मा का रमाशंकर को आवाज़ देना और हर बार उसका चेहरे पर बिना शिकन लाए उठना, मुझे आत्मविश्‍लेषण के लिए बाध्य कर रहा था. उसे देख मुझे एहसास हो रहा था कि इंसानियत और बड़प्पन हैसियत की मोहताज नहीं होती. वह तो दिल में होती है. अचानक मुझे एहसास हुआ, मेरे और रमाशंकर के बीच आज भी प्रतिस्पर्धा जारी है. इंसानियत की प्रतिस्पर्धा, जिसमें आज भी वह मुझसे बाज़ी मार ले गया था. पद भले ही मेरा बड़ा था, किंतु रमाशंकर का क़द मुझसे बहुत ऊंचा था.*


गाड़ी मुंबई सेंट्रल पर रुकी, तो मैं रमाशंकर के क़रीब पहुंचा. उसके दोनों हाथ थाम मैं भावुक स्वर में बोला, “रमाशंकर मेरे दोस्त, चलता हूं. यह सफ़र सारी ज़िंदगी मुझे याद रहेगा.” कहने के साथ ही मैंने उसे गले लगा लिया.

आश्‍चर्यमिश्रित ख़ुशी से वह मुझे देख रहा था. मैं बोला, “वादा करो, अपनी फैमिली को लेकर मेरे घर अवश्य आओगे.”


*“आऊंगा क्यों नहीं, आखिऱ इतने वर्षों बाद मुझे मेरा दोस्त मिला है.” ख़ुशी से उसकी आवाज़ कांप रही थी. अटैची उठाए पापा के साथ मैं नीचे उतर गया. स्टेशन के बाहर मैंने टैक्सी पकड़ी और ड्राइवर से एयरपोर्ट चलने को कहा. पापा हैरत से बोले, “एयरपोर्ट क्यों?” भावुक होकर मैं पापा के गले लग गया और रुंधे कंठ से बोला, “पापा, मुझे माफ़ कर दीजिए. हम वापिस दिल्ली जा रहे हैं. अब आप हमेशा वहीं अपने घर में रहेंगे.” पापा की आंखें नम हो उठीं और चेहरा खुशी से खिल उठा.*


“जुग जुग जिओ मेरे बच्चे.” वह बुदबुदाए. कुछ पल के लिए उन्होंन अपनी आंखें बंद कर लीं, फिर चेहरा उठाकर आकाश की ओर देखा. मुझे ऐसा लगा मानो वह मम्मी से कह रहे हों, देर से ही सही, तुम्हारा विश्‍वास सही निकला.


आप किस राह पर हैं,??

रजत या रमाशंकर

विचारणीय ?

अब सोचिए!!

हिंदी वर्णमाला कविता

 हिन्दी वर्णमाला का क्रम से कवितामय प्रयोग 



*अ* चानक

*आ* कर मुझसे

*इ* ठलाता हुआ पंछी बोला

*ई* श्वर ने मानव को तो

*उ* त्तम ज्ञान-दान से तौला

*ऊ* पर हो तुम सब जीवों में

*ऋ* ष्य तुल्य अनमोल

*ए* क अकेली जात अनोखी

*ऐ* सी क्या मजबूरी तुमको

*ओ* ट रहे होंठों की शोख़ी

*औ* र सताकर कमज़ोरों को

*अं* ग तुम्हारा खिल जाता है

*अ:* तुम्हें क्या मिल जाता है.?

*क* हा मैंने- कि कहो

*ख* ग आज सम्पूर्ण

*ग* र्व से कि- हर अभाव में भी

*घ* र तुम्हारा बड़े मजे से

*च* ल रहा है

*छो* टी सी- टहनी के सिरे की

*ज* गह में, बिना किसी

*झ* गड़े के, ना ही किसी

*ट* कराव के पूरा कुनबा पल रहा है

*ठौ* र यहीं है उसमें

*डा* ली-डाली, पत्ते-पत्ते

*ढ* लता सूरज

*त* रावट देता है

*थ* कावट सारी, पूरे

*दि* वस की-तारों की लड़ियों से

*ध* न-धान्य की लिखावट लेता है

*ना* दान-नियति से अनजान अरे

*प्र* गतिशील मानव

*फ़* रेब के पुतलो

*ब* न बैठे हो समर्थ

*भ* ला याद कहाँ तुम्हें

*म* नुष्यता का अर्थ.?

*य* ह जो थी, प्रभु की

*र* चना अनुपम...

*ला* लच-लोभ के 

*व* शीभूत होकर

*श* र्म-धर्म सब तजकर

*ष* ड्यंत्रों के खेतों में

*स* दा पाप-बीजों को बोकर

*हो* कर स्वयं से दूर

*क्ष* णभंगुर सुख में अटक चुके हो

*त्रा* स को आमंत्रित करते

*ज्ञा* न-पथ से भटक चुके हो.!!

Thursday, 17 September 2020

कर्नल रणवीर सिंह जामवाल


भारत_का_असली_सुपरस्टार


ब्लैक टॉप पर चीन का हौसला तोड़ने वाले भारतीय सेना के #कर्नल_रणवीर_सिंह_जामवाल....


29-30 अगस्त की रात जब पैंगोग झील के दक्षिणी किनारे में चीनी सैनिक घुसपैठ की कोशिश कर रहे थे तब कर्नल रणवीर सिंह ही थे जिन्होंने उनकी इस हरकत को नाकाम कर दिया। उन्हीं की बदौलत भारतीय सेना के जवान उंचे-उंचे पर्वतों पर चढ़ाई कर सके और पहाड़ी इलाकों पर कब्जा भी कर पाए। जामवाल के बेमिसाल नेतृत्व और प्रेरणा से झील इलाके में (जमीन कब्जाने की कोशिश कर रहे चीनी सेना को) भारतीय सेना ने ऐसी पटकनी दी जिसे वह कभी भूल नहीं पाएंगे।


कर्नल जमवाल एक भारतीय सैनिक होने के साथ-साथ पर्वतारोही भी हैं। जो माउंट एवरेस्ट समेत लगभग सभी बड़ी चोटियां फतह कर चुके हैं। यह भारतीय सेना के जाट रेजिंमेट के हिस्सा हैं। वह ऐसे इकलौते अफसर हैं जिन्होंने 7 महाद्वीपों के सबसे उंचे पर्वतों पर चढ़ाई की है। माउंट ऐवरेस्ट पर उन्होंने एक बार नहीं बल्कि 3 बार चढ़ाई की है। पिछले साल उन्होंने अंटार्कटिका की सबसे उंची चोटी माउंट विंसन मेसिफ पर चढ़ाई की थी जिसके बाद वह #पर्वतरोहण_की_सेवन_समिट पूरी करने वाले #पहले_भारतीय_सैनिक बन गए हैं। साल 2013 में कर्नल जामवाल ने इंडो-नेपाल आर्मी एवरेस्ट अभियान को भी लीड किया। कर्नल जामवाल ने भारतीय सेना साल 1994 में एक सिपाही के तौर पर ज्वाइंन किया था, जिसके बाद उन्होंने ऑफिसर का एग्जाम दिया जिसमें वह पास हुए और साल 1998 में भारतीय मिलिट्री अकेडमी ज्वाइंन कर लिया। जामवाल के पिता भी एक सैनिक थे। फिलहाल रणवीर सिंह जामवाल दुनिया के सबसे बेहतरीन पर्वतारोहियों में शमिल हो गए हैं। जिसके लिए साल 2013 में उन्हें #तेनजिंग_नोरगे_सम्मान से भी सम्मानित किया गया था।

साभार 

#जयहिंद

#जय_हिंदू_राष्ट्र

कौन थे डॉ मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया

 


यकायक एक शख्स सीट से उठा और जोर से चिल्लाया..

 "ट्रेन रोको"

कोई कुछ समझ पाता उसके पूर्व ही उसने ट्रेन की जंजीर खींच दी..ट्रेन रुक गईं..!!

ट्रेन का गार्ड दौड़ा-दौड़ा आया। कड़क आवाज में पूछा..

 किसने ट्रेन रोकी..??

कोई अंग्रेज बोलता उसके पहले ही, वह शख्स बोल उठा..

 "मैंने रोकी श्रीमान"..

पागल हो क्या ? पहली बार ट्रेन में बैठे हो ? तुम्हें पता है, बिना कारण ट्रेन रोकना अपराध हैं..गार्ड गुस्से में बोला..!!

हाँ श्रीमान ज्ञात है किंतु, मैं ट्रेन न रोकता तो सैकड़ो लोगो की जान चली जाती..!!

अब तो जैसे अंग्रेजों का गुस्सा फूट पड़ा। सभी उसको गालियां दे रहे थे..गंवार, जाहिल जितने भी शब्द शब्दकोश मे थे, बौछार कर रहे थे..किंतु वह शख्स गम्भीर मुद्रा में शांत खड़ा था,मानो उस पर किसी की बात का कोई असर न पड़ रहा हो..उसकी चुप्पी अंग्रेजों का गुस्सा और बढा रही थी..!!

किस्सा दरअसल आजादी से पहले, ब्रिटेन का है..!!ट्रेन अंग्रेजों से भरी हुई थी। उसी ट्रेन के एक डिब्बे में अंग्रेजों के साथ एक भारतीय भी बैठा हुआ था..!!


उस शख्स की बात सुनकर सब जोर-जोर से हंसने लगे। किँतु उसने बिना विचलित हुये, पूरे आत्मविश्वास के साथ कहा....यहाँ से करीब एक फरलाँग(220 गज) की दूरी पर पटरी टूटी हुई हैं..आप चाहे तो चलकर देख सकते है..!!


गार्ड के साथ वह शख्स और कुछ अंग्रेज सवारी भी साथ चल दी..!!


रास्ते भर भी अंग्रेज उस पर फब्तियां कसने मे कोई कोर-कसर नही रख रहे थे..!!


किँतु सबकी आँखें उस वक्त फ़टी की फटी रह गई जब वाक़ई , बताई गई दूरी के आस-पास पटरी टूटी हुई थी। नट-बोल्ट खुले हुए थे। 


अब गार्ड सहित वे सभी चेहरे जो उस भारतीय को गंवार, जाहिल, पागल कह रहे थे, वे सभी उसकी और कौतूहलवश देखने लगे..मानो पूछ रहे हो आपको ये सब इतनी दूरी से कैसे पता चला ??..


गार्ड ने पूछा... तुम्हें कैसे पता चला , पटरी टूटी हुई हैं ??.


उसने कहा... "श्रीमान लोग ट्रेन में अपने-अपने कार्यो मे व्यस्त थे..उस वक्त मेरा ध्यान ट्रेन की गति पर केंद्रित था.!! ट्रेन स्वाभाविक गति से चल रही थी किन्तु अचानक पटरी की कम्पन से उसकी गति में परिवर्तन महसूस हुआ..ऐसा तब होता हैं, जब कुछ दूरी पर पटरी टूटी हुई हो..!! 


अतः मैंने बिना क्षण गंवाए, ट्रेन रोकने हेतु जंजीर खींच दी..!!


गार्ड औऱ वहाँ खड़े अंग्रेज दंग रह गये। गार्ड ने पूछा, इतना बारीक तकनीकी ज्ञान, आप कोई साधारण व्यक्ति नही लगते। अपना परिचय दीजिये। 


शख्स ने बड़ी शालीनता से जवाब दिया...


श्रीमान मैं "इंजीनियर मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया"


जी हाँ वह असाधारण शख्स कोई और नही 

"डॉ विश्वेश्वरैया" थे..जो देश के "प्रथम इंजीनियर" थे..!!


आज उनका जन्मदिवस हैं,उनके जन्मदिवस को अभियंता दिवस(इंजीनियर_डे) के रूप मे मनाया जाता हैं..!!

कुतुबुद्दीन ऐबक की मौत


कुतुबुद्दीन घोड़े से गिर कर मरा,

 यह तो सब जानते हैं, 

लेकिन कैसे?

यह आज हम आपको बताएंगे..

वो वीर महाराणा प्रताप जी का 'चेतक' सबको याद है,

लेकिन 'शुभ्रक एक वफादार जानवर जो कि वफादारी का मिशाल है

कहानी 'शुभ्रक' की......

सूअर कुतुबुद्दीन ऐबक ने राजपूताना में जम कर कहर बरपाया, 

और

 उदयपुर के 'राजकुंवर कर्णसिंह' को बंदी बनाकर लाहौर ले गया।

कुंवर का 'शुभ्रक' नामक एक स्वामिभक्त घोड़ा था,

जो कुतुबुद्दीन को पसंद आ गया और वो उसे भी साथ ले गया।

एक दिन कैद से भागने के प्रयास में कुँवर सा को सजा-ए-मौत सुनाई गई.. 

और सजा देने के लिए 'जन्नत बाग' में लाया गया। 

यह तय हुआ कि 

राजकुंवर का सिर काटकर उससे 'पोलो' (उस समय उस खेल का नाम और खेलने का तरीका कुछ और ही था) खेला जाएगा..

कुतुबुद्दीन ख़ुद कुँवर सा के ही घोड़े 'शुभ्रक' पर सवार होकर अपनी खिलाड़ी टोली के साथ 'जन्नत बाग' में आया।

'शुभ्रक' ने जैसे ही कैदी अवस्था में राजकुंवर को देखा, 

उसकी आंखों से आंसू टपकने लगे। 

जैसे ही सिर कलम करने के लिए कुँवर सा की जंजीरों को खोला गया, 

तो 'शुभ्रक' से रहा नहीं गया.. 

उसने उछलकर कुतुबुद्दीन को घोड़े से गिरा दिया 

और उसकी छाती पर अपने मजबूत पैरों से कई वार किए, 

जिससे कुतुबुद्दीन के प्राण पखेरू उड़ गए!

इस्लामिक सैनिक अचंभित होकर देखते रह गए.. 

मौके का फायदा उठाकर कुंवर सा सैनिकों से छूटे और 'शुभ्रक' पर सवार हो गए। 

'शुभ्रक' ने हवा से बाजी लगा दी.. 

लाहौर से उदयपुर बिना रुके दौडा और उदयपुर में महल के सामने आकर ही रुका!

राजकुंवर घोड़े से उतरे और अपने प्रिय अश्व को पुचकारने के लिए हाथ बढ़ाया, 

तो पाया कि वह तो प्रतिमा बना खडा था.. उसमें प्राण नहीं बचे थे।

सिर पर हाथ रखते ही 'शुभ्रक' का निष्प्राण शरीर लुढक गया..

भारत के इतिहास में यह तथ्य कहीं नहीं पढ़ाया जाता

 क्योंकि वामपंथी और मुल्लापरस्त लेखक अपने नाजायज बाप की ऐसी दुर्गति वाली मौत बताने से हिचकिचाते हैं! 

जबकि 

फारसी की कई प्राचीन पुस्तकों में कुतुबुद्दीन की मौत इसी तरह लिखी बताई गई है।

नमन स्वामीभक्त 'शुभ्रक' को..

महान ऋषि पिप्पलाद

पिप्पलाद उपनिषद्‍कालीन एक महान ऋषि एवं अथर्ववेद का सर्व प्रथम संकलकर्ता थे। पिप्पलाद का शब्दार्थ, 'पीपल के फल खाकर जीनेवाला' (पिप्पल...