1. वे अगस्त-सितंबर, 2020 तक टीका बनाने को प्रोत्साहित करने के भारत सरकार के प्रयास का मखौल उड़ा रहे थे। टीका बन गया, आपातकालीन मंजूरी दे दी गई तो जनवरी, 21 में कहने लगे बिना उपुयक्त प्रक्रिया के ये टीका बना है, इसे नहीं लगवाना। इनमें अनेक माननीय मुख्यमंत्री, पूर्व मुख्यमंत्री, राष्ट्रीय स्तर के नेता शामिल थे। सर्वोच्च न्यायालय के महान् वकील साहब तो मार्च, 20 में भी कह रहे थे कि देश में हर्ड इम्युनिटी पहले ही आ गई है अतः टीके हेतु 35 हजार करोड़ का प्रावधान धन की बर्बादी है। अप्रैल, 20 में अचानक इन सबके भीतर से एक साथ ज्ञान फूटा कि सारे देशवासियों को केन्द्र सरकार द्वारा तुरन्त दोनों डोज लगवानी चाहिए। सरकार निकम्मी है, इन महान् लोगों के पास तो अलादीन का चिराग है, जब चाहें, जितने टीके तैयार करवा सकते हैं। वाह, आम जनता की क्या गजब चिंता करते हैं। 2-3 माह में क्रम से सबकी बारी आ जाती, पर एक धड़े द्वारा अव्यवस्था निर्मित करनी हो तो क्या कहिये?
2. ये महान् ज्ञानी फिर ज्ञान दे रहे हैं कि सरकार ने देश की सारी ऑक्सीजन बेच दी, कोरोना की दूसरी किश्त को भुगतना पड़ रहा है। अरे भाई, इंडस्ट्रियल और मेडिकल ऑक्सीजन अलग-अलग होती है, ये रोज़ बनती है, लंबे समय तक स्टोर नहीं कर सकते, भंडारण की सीमा होती है। आवश्यकता होने पर उत्पादन बढ़ सकता है, उसका ट्रांस्पोर्टेशन करना पड़ेगा-कुछ समय लगेगा ही। कोविड19 की कोई भी लहर मुहूर्त से नहीं आती, उसके आने, बढ़ने, थमने के अंदाज़ ही होंगे। माना हम तो पिछड़े हैं, अमेरिकी, योरोपीय देश और उनकी अधुनातन व्यवस्थाएँ भी ऐसी महामारी के सामने एक बार दबाव में आएंगी। पर स्थिति को नियंत्रण में लाने में खुलकर सहयोग करने की जगह बस पैनिक निर्मित करना। सरकारों के गुण-दोष तो समय पड़ा है, बाद में देख लेंगे, कमी को और कमी में बदलना?
3. गत वर्ष वेंटीलेटर मांगे, बढ़-चढ़ कर मांगे, बिना आधार संरचना का विचार और व्यवस्था किये। आ गए, कुछ इनस्टॉल करवा लिए, कैलिब्रेट कर दिए गए, शेष स्टोर में। अचानक अप्रैल, 21 में गर्द झाड़ी, चलाना आता नहीं-कह दो रद्दी भेजे थे। वाह साहब, 6-7 माह बाद, रद्दी घोषित करने का आलाकमान निर्देश देता है! जाँचने पर पता लगा कहीं ऑक्सीजन फ्लो नहीं, कहीं कनेक्टर नहीं, कहीं किराए पर चढ़ा दिए! ख़राबी वेंटिलेटर में नहीं, कुछ लोगों की नीयत में है।
4. पी एम केयर फण्ड को अफण्डा घोषित करने की बेचैनी तो पिछले साल ही ओवरफ्लो हो रही थी। कैसी दलीलें देते थे, कोर्ट में एक नहीं टिकी। ज्ञात हुआ कि ऑडिट आदि के पी एम रिलीफ फण्ड वाले सब प्रावधान इसमें भी थे, सिवा एक पार्टी के अध्यक्ष के सदस्य होने के। सारे सदस्य पदेन रखे गए, इससे हुजूर इतने चिढ गए?
5. पिछले साल लॉकडाउन केंद्रीय स्तर पर घोषित किया तो प्रदेशों के हक़ पर कुठाराघात बताया, पूरा गिरोह विकेन्द्रीयकरण की राग अलापता रहा। इस बार प्रदेशों पर छोड़ा तो भी वैसे ही हाय-तौबा! यह सब आदतन और इरादतन तो नहीं?
6. चुनावी रैलियों में मोदी एण्ड पार्टी ने दूसरी लहर फैला दी अतः यह इण्डियन और मोदी वैरिएंट है। कोविड19 के जन्म-स्थल चीन का नाम लेते ही जिनको करंट-सा लगता है, नस्लवादी टिप्पणी लगती है अब कुछ भी बको? भाई, नवंबर,20 के बिहार चुनाव में आयोग वर्चुअल रैली से ही प्रचार करने की बात कर रहा था तब 9 पार्टियों ने लम्बा-चौड़ा प्रतिवेदन देकर इसे नकार दिया था। 2जुलाई के अपनी पसंद के अखबार देख लो। अप्रैल मध्य तक रैलियों पर किसी दल को आपत्ति नहीं थी। केरल जहाँ नया स्ट्रेन फैल रहा था, ये दल खुलकर रैलियां कर रहे थे, तमिलनाडु में दिक्कत नहीं, पुश अप लगा रहे थे, असम में भी दिक्कत नहीं। एक नेता को अचानक बंगाल में चौथे चरण के बाद इलहाम हुआ कि चुनावी रैलियां घातक हैं-वाह क्या अंतर्दृष्टि है! मान लीजिये जमावड़ा जिसने भी, जिस भी कारण से किया वे सब दोषी हैं। भीड़ चाहे धार्मिक मेले में हुई, सामाजिक उत्सव में हुई या राजनैतिक कारण से हुई - घातक ही रही। उधर किसान आंदोलन तो कब से ही चल रहा है। पंजाब, हरियाणा, पश्चिम यूपी, दिल्ली में बड़ी-बड़ी सभाएं-क्या इस भीड़ का कोरोना फैलाने में कोई रोल नहीं? इन्हें विशेष इम्युनिटी मिली हुई है? इनको ऊपर के मन से ही कह देते कि भई अभी एक बार घर जाओ।
7. एक पूरा इको सिस्टम सक्रिय है, प्रतिमा-खण्डन का मूल उद्देश्य लिए , नए-नए नैरेटिव गढ़ते हैं, आरोप लगाकर कुटिल हँसी हँसते हैं, अगला उत्तर दे तब तक नई तोहमत मढ़ देते हैं। कोरोना से लड़ने की जगह इन्हें मोदी और सरकार की छवि से लड़ना है। प्रतिपक्ष का यह हक़ हो सकता है। प्रतिपक्षी नेतृत्व अभी जितना बचकाना कभी नहीं रहा, अब तो यह धूर्त और मक्कार भी लगने लगा है। यहां भी अनेक नेता-कार्यकर्ता, समर्थक सेवाभावी हैं परन्तु ऊपर से गाइड लाइन आती है, उसी अनुरूप इन्हें भी सोशल साइट पर दिखना होता है। कुछ पुराने लाभार्थी, कुछ निस्वार्थ सेवार्थी इस इको सिस्टम को कंधों पर चके हुए हैं। विश्व के सबसे बड़े अमेरिकन सटोरिये ने तो विश्व से राष्ट्रवादी सरकारों को मिटाने का प्रण ले रखा है, अरबों की ख़ैरात कोई यूँ ही नहीं बाँटता।
जो लोग कोविड की चपेट में आये, जिन्होंने स्वजन खोए, अव्यवस्था के शिकार हुए उन सबका आक्रोशित होना स्वाभाविक है, उन्हें सांत्वना, राहत कैसे मिले , यह हमारी चिंता में सर्वोपरि हो। भविष्य में आपातकालीन स्वास्थ्य व्यवस्थाओं को सुचारू बनाने का रोडमैप केंद्र व प्रांत दोनों की सरकारें बनाएं, स्वास्थ्यकर्मियों का मनोबल बनाये रखें, टीकाकरण को गति दें, भविष्य के लिए सबक लें-यह सब कार्यसूची में ऊपर हो।
उन गिद्धों का क्या करें, जो शैय्या पर लेटे हुओं की मृत्यु की कामना कर रहे हैं। यदि इनके हाथ बागडोर होती तो क्या हालात होते, कुछ अंदाजा है?
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