Friday, 2 October 2020

कोरोना से बचाव के उपाय

 








*कोरोना के लिए घर पर आवश्यक चिकित्सा किट:--*


1. पारासिटामोल

2. बेटाडीन गार्गल माउथवॉश के लिए 

3. विटामिन सी और डी 

4. बी कॉम्प्लेक्स

5. भाप लेने के लिए कैप्सूल

6. पल्स ऑक्सीमेटर 

7. ऑक्सीजन सिलेंडर (केवल आपातकाल के लिए)

8. गहरी साँस लेने के व्यायाम करे


*👉कोरोना के तीन चरण:-*


1. केवल नाक में कोरोना - रिकवरी का समय आधा दिन होता है, इसमें आमतौर पर बुखार नहीं होता है और इसे असिमोटमाटिक कहते है | 

इसमें क्या करे :- 

स्टीम इन्हेलिंग करे व विटामिन सी लें | 


2. गले में खराश - रिकवरी का समय 1 दिन होता है | 

इसमें क्या करे : -

गर्म पानी का गरारा करें, पीने में गर्म पानी  लें, अगर बुखार हो तो पारासिटामोल लें | अगर गंभीर हो तो विटामिन सी, बी.कम्पलेक्स और एंटीबायोटिक लें | 


3. फेफड़े में खांसी- 4 से 5 दिन में खांसी और सांस फूलना। 

इसमें क्या करें : 

गर्म पानी का गरारा करें, पीने में गर्म पानी  लें, विटामिन सी, बी कॉम्प्लेक्स, पारासिटामोल ले और गुनगुने पानी के साथ नींबू का सेवन करे| ऑक्सिमीटर से अपने ऑक्सीजन लेवल की जाँच करते रहे | अगर आपके पास ऑक्सीमेटर नहीं हो तो आप किसी भी दवा दुकान में काल कर के होम डिलीवरी ले अथवा पीएमसीएच में कॉल  सकते है |  गहरी साँस लेने का व्यायाम करे। अगर समस्या गंभीर हो तो ऑक्सीजन सिलिंडर मंगाए और डॉक्टर से ऑनलाइन परामर्श ले | 


अस्पताल आने के लिए स्टेज:

ऑक्सिमीटर से अपने ऑक्सीजन लेवल की जाँच करते रहे। यदि यह 92 (सामान्य 98-100) के पास जाता है और आपको कोरोना के लक्षण(जैसे की बुखार, सांस फूलना इत्यादि) हैं तो आपको ऑक्सीजन सिलेंडर की आवश्यकता होती है। इसके लिए तुरंत नजदीकी स्वास्थ सेवा केंद्र पे संपर्क करे व परामर्श ले | 


*स्वस्थ रहें, सुरक्षित रहें!*

 कृपया अपने परिवार और समाज का ख्याल रखें | घर पे रहे और सुरक्षित रहे | 


 *ध्यान दें:*

 कोरोनावायरस का pH  5.5 से 8.5 तक होता है


 इसलिए, वायरस को खत्म करने के लिए हमें बस इतना करना है कि वायरस की अम्लता के स्तर से अधिक क्षारीय खाद्य पदार्थों का सेवन करें।

 जैसे कि:


 -केले

- हरा नींबू - 9.9 पीएच

 -पीला नींबू - 8.2 पीएच

 -एवोकैडो - 15.6 पीएच

 -लहसुन - 13.2 पीएच

 -आम - 8.7 पीएच

 -कीनू - 8.5 पीएच

 -अनानास - 12.7 पीएच

 -जलकुंड - 22.7 पीएच

 -संतरे - 9.2 पीएच


 *कैसे पता चलेगा कि आप कोरोना वायरस से संक्रमित हैं?*


 1. गला सुखना 

 2 . सूखी खांसी

 4. शरीर का उच्च तापमान 

 5. सांस की तकलीफ

 6. गंध की कमी

7. स्वाद की कमी


गर्म पानी के साथ नींबू पीने से वायरस फेफड़ों तक पहुँचने से पहले ही खत्म हो जाते हैं | 


इस जानकारी को खुद तक न रखें। इसे अपने सभी परिवार और दोस्तों और सभी के साथ शेयर करे । आपको नहीं पता की इस जानकारी को शेयर करके आप किसकी जान बचा रहे है | इसे शेयर करे और लोगो की मदद करे | ताकि अधिक से अधिक लोगों को  जानकारी हो सके।

लाल बहादुर शास्त्री

 



जन्म : 2 अक्टूबर, 1904

 

निधन : 10 जनवरी, 1966

 

उपलब्धियां : भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में मुख्य भूमिका, उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री गोविन्द वल्लभ पंत के संसदीय सचिव, पंत मंत्रिमंडल में पुलिस और परिवहन मंत्री, केंद्रीय मंत्रिमंडल में रेलवे और परिवहन मंत्री, केन्द्रीय मंत्रिमंडल में परिवहन और संचार, वाणिज्य और उद्योग,1964 में भारत के प्रधान मंत्री बनेलाल बहादुर शास्त्री स्वतंत्र भारत के दूसरे प्रधानमंत्री थे। शारीरिक कद में छोटे होने के बावजूद भी वह महान साहस और इच्छाशक्ति के व्यक्ति थे। पाकिस्तान के साथ 1965 केयुद्ध के दौरान उन्होंने सफलतापूर्वक देश का नेतृत्व किया। युद्ध के दौरान देश को एकजुट करने के लिए उन्होंने “जय जवान जय किसान का नारा दिया। आज़ादी से पहले उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन में भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। उन्होंने बड़ी सादगी और ईमानदारी के साथ अपना जीवन जिया और सभी देशवासियों के लिए एक प्रेरणा के श्रोत बने।

 

प्रारंभिक जीवन :लाल बहादुर शास्त्री का जन्म 2 अक्टूबर 1904 को उत्तर प्रदेश के मुग़लसराय में हुआ था। उनके पिता शारदा प्रसाद और माँ रामदुलारी देवी थीं। लाल बहादुर का उपनाम श्रीवास्तव था पर उन्होंने इसे बदल दिया क्योंकि वह अपनी जाति को अंकित करना नहीं चाहते थे। लाल बहादुर के पिता एक स्कूल में अध्यापक थे और बाद में वह इलाहबाद के आयकर विभाग में क्लर्क बन गए। गरीब होने के वाबजूद भी शारदा प्रशाद अपनी ईमानदारी और शराफत के लिए जाने जाते थे। लाल बहादुर केवल एक वर्ष के थे तभी उनके पिता का देहांत हो गया। तत्पश्चात रामदुलारी देवी ने लाल बहादुर और अपनी दो पुत्रियों का पालन पोषण अपने पिता के घर पर किया।जब लाल बहादुर छः वर्ष के थे तब एक दिलचस्प घटना घटी। एक दिन विद्यालय से घर लौटते समय लाल बहादुर और उनके दोस्त एक आम के बगीचे में गए जो उनके घर के रास्ते में ही पड़ता था। उनके दोस्त आम तोड़ने के लिए पेड़ पर चढ़ गए जबकि लाल बहादुर निचे ही खड़े रहे। इसी बीच माली आ गया और उसने लालबहादुर को पकड़कर डांटा और पीटना शुरू कर दिया। बालक लाल बहादुर ने माली से निवेदन किया कि वह एक अनाथ है इसलिए उन्हें छोड़ दें। बालक पर दया दिखाते हुए माली ने कहा “चूँकि तुम एक अनाथ हो इसलिए यह सबसे जरुरी है कि तुम बेहतर आचरण सीखो” इन शब्दों ने उन पर एक गहरी छाप छोड़ी और उन्होंने भविष्य में बेहतर व्यवहार करने की कसम खाई।लाल बहादुर अपने दादा के घर पर 10 साल की उम्र तक रुके। तब तक उन्होंने कक्षा छः की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली थी। उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए वह वाराणसी गए।

 

राजनैतिक जीवन :1921 में जब महात्मा गांधी ने ब्रिटिश सरकार के खिलाफ असहयोग आंदोलन की शुरुआत की तब लाल बहादुर शास्त्री मात्र 17 साल के थे। जब महात्मा गांधी ने युवाओं को सरकारी स्कूलों और कॉलेजों, दफ्तरों और दरबारों से बाहर आकर आजादी के लिए सब कुछ न्योछावर करने का आह्वान किया तब उन्होंने अपना स्कूल छोड़ दिया। हांलाकि उनकी माताजी और रिश्तेदारों ने ऐसा न करने का सुझाव दिया पर वो अपने फैसले पर अटल रहे। लाल बहादुर को असहयोग आंदोलन के दौरान गिरफ्तार भी किया गया पर कम उम्र के कारण उन्हें छोड़ दिया गया।जेल से छूटने के पश्चात लाल बहादुर ने काशी विद्यापीठ में चार साल तक दर्शनशास्त्र की पढाई की। वर्ष 1926 में लाल बहादुर ने “शास्त्री” की उपाधि प्राप्त कर ली। काशी विद्यापीठ छोड़ने के पश्चात वो “द सर्वेन्ट्स ऑफ़ द पीपल सोसाइटी” से जुड़ गए जिसकी शुरुआत 1921 में लाला लाजपत राय द्वारा की गयी थी। इस सोसाइटी का प्रमुख उद्देश्य उन युवाओं को प्रशिक्षित करना था जो अपना जीवन देश की सेवा में समर्पित करने के लिए तैयार थे। 1927 में लाल बहादुर शास्त्री का विवाह ललिता देवी के साथ हुआ। विवाह संस्कार काफी साधारण तरीके से हुआ।1930 में गांधी जी ने सविनय अवज्ञा आंदोलन का आह्वान किया और लाल बहादुर भी इस आंदोलन से जुड़े और लोगों को सरकार को भू-राजस्व और करों का भुगतान न करने के लिए प्रेरित किया। उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और ढाई साल के लिए जेल भेज दिया गया। जेल में वो पश्चिमी देशों के दार्शनिकों, क्रांतिकारियों और समाज सुधारकों के कार्यों से परिचित हुए। वह बहुत ही आत्म सम्मानी व्यक्ति थे। एक बार जब वह जेल में थे उनकी एक बेटी गंभीर रूप से बीमार हो गयी। अधिकारीयों ने उन्हें कुछ समय के लिए इस शर्त पर रिहा करने की सहमति जताई कि वह यह लिख कर दें कि वह इस दौरान किसी भी स्वतंत्रता आंदोलन में भाग नहीं लेंगे। लाल बहादुर जेल से कुछ समय के लिए रिहा होने के दौरान स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने के इच्छुक नहीं थे फिर भी उन्होंने कहा कि वह यह बात लिख कर नहीं देंगे। उनका मानना था कि लिखित रूप में देना उनके आत्म सम्मान के विरुद्ध है।1939 में दूसरे विश्व युद्ध शुरू होने के बाद सन 1940 में कांग्रेस ने आजादी कि मांग करने के लिए “एक जन आंदोलन” प्रारम्भ किया। लाल बहादुर शास्त्री को जन आंदोलन के दौरान गिरफ्तार कर लिया गया और एक साल के बाद रिहा किया गया। 8 अगस्त 1942 को गांधीजी ने भारत छोड़ो आंदोलन का आह्वान किया। उन्होंने इस आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लिया। इसी दौरान वह भूमिगत हो गए पर बाद में गिरफ्तार कर लिए और फिर 945 में दूसरे बड़े नेताओं के साथ उन्हें भी रिहा कर दिया गया। उन्होंने 1946 में प्रांतीय चुनावों के दौरान अपनी कड़ी मेहनत से पंडित गोविन्द वल्लभ पंत को बहुत प्रभावित किया। लाल बहादुर की प्रशासनिक क्षमता और संगठन कौशल इस दौरान सामने आया। जबगोविन्द वल्लभ पंत उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री बने तो उन्होंने लाल बहादुर को संसदीय सचिव के रूप में नियुक्त किया। 1947 में शास्त्रीजी पंत मंत्रिमंडल में पुलिस और परिवहन मंत्री बने।भारत के गणराज्य बनने के बाद जब पहले आम चुनाव आयोजित किये गए तब लाल बहादुर शास्त्री कांग्रेस पार्टी के महासचिव थे। कांग्रेस पार्टी ने भारी बहुमत के साथ चुनाव जीता। 1952 में जवाहर लाल नेहरू ने लाल बहादुर शास्त्री को केंद्रीय मंत्रिमंडल में रेलवे और परिवहन मंत्री के रूप में नियुक्त किया। तृतीय श्रेणी के डिब्बों में यात्रियों को और अधिक सुविधाएं प्रदान करने में लाल बहादुर शास्त्री के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। उन्होंने रेलवे में प्रथम श्रेणी और तृतीय श्रेणी के बीच विशाल अंतर को कम किया। 1956 में लाल बहादुर शास्त्री ने एक रेल दुर्घटना की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए मंत्री पद से त्यागपत्र दे दिया। जवाहरलाल नेहरू ने शास्त्रीजी को मनाने की बहुत कोशिश की पर लाल बहादुर शास्त्री अपने फैसले पर कायम रहे। अपने कार्यों से लाल बहादुर शास्त्री ने सार्वजनिक जीवन में नैतिकता के एक नए मानक को स्थापित किया ।अगले आम चुनावों में जब कांग्रेस सत्ता में वापस आयी तब लाल बहादुर शास्त्री परिवहन और संचार मंत्री और बाद में वाणिज्य और उद्द्योग मंत्री बने। वर्ष 1961 में गोविन्द वल्लभ पंत के देहांत के पश्चात वह गृह मंत्री बने । सन 1962 में भारत-चीन युद्ध के दौरान शास्त्रीजी ने देश की आतंरिक सुरक्षा बनाये रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।1964 में जवाहरलाल नेहरू के मरणोपरांत सर्वसम्मति से लाल बहादुर शास्त्री को भारत का प्रधान मंत्री चुना गया। यह एक मुश्किल समय था और देश बड़ी चुनौतियों से जूझ रहा था। देश में खाद्यान की कमी थी और पाकिस्तान सुरक्षा के मोर्चे पर समस्या खड़ा कर रहा था। 1965 में पाकिस्तान ने भारत पर हमला कर दिया। कोमल स्वभाव वाले लाल बहादुर शास्त्री ने इस अवसर पर अपनी सूझबूझ और चतुरता से देश का नेतृत्व किया। सैनिकों और किसानों को उत्साहित करने के लिए उन्होंने “जय जवान, जय किसान” का नारा दिया। पाकिस्तान को युद्ध में हार का सामना करना पड़ा और शास्त्रीजी के नेतृत्व की प्रशंसा हुई।जनवरी 1966 में भारत और पाकिस्तान के बीच शांति वार्ता के लिए ताशकंद में लाल बहादुर शास्त्री और अयूब खान के बीच हुई बातचीत हुई। भारत और पाकिस्तान ने रूसी मध्यस्थता के तहत संयुक्त घोषणापत्र पर हस्ताक्षर किए। संधि के तहत भारत युद्ध के दौरान कब्ज़ा किये गए सभी प्रांतो को पाकिस्तान को लौटने के लिए सहमत हुआ। 10 जनवरी 1966 को संयुक्त घोषणा पत्र हस्ताक्षरित हुआ और उसी रात को दिल का दौरा पड़ने से लाल बहादुर शास्त्री का निधन हो गया।

आदि शंकराचार्य

 



आदि शंकराचार्य (अंग्रेज़ी: Adi Shakaracharya, जन्म नाम: शंकर, जन्म: 788 ई. - मृत्यु: 820 ई.) अद्वैत वेदान्त के प्रणेता, संस्कृत के विद्वान, उपनिषद व्याख्याता और हिन्दू धर्म प्रचारक थे। हिन्दू धार्मिक मान्यता के अनुसार इनको भगवान शंकर का अवतार माना जाता है। इन्होंने लगभग पूरे भारत की यात्रा की और इनके जीवन का अधिकांश भाग उत्तर भारत में बीता। चार पीठों (मठ) की स्थापना करना इनका मुख्य रूप से उल्लेखनीय कार्य रहा, जो आज भी मौजूद है। शंकराचार्य को भारत के ही नहीं अपितु सारे संसार के उच्चतम दार्शनिकों में महत्व का स्थान प्राप्त है। उन्होंने अनेक ग्रन्थ लिखे हैं, किन्तु उनका दर्शन विशेष रूप से उनके तीन भाष्यों में, जो उपनिषद, ब्रह्मसूत्र और गीता पर हैं, मिलता है। गीता और ब्रह्मसूत्र पर अन्य आचार्यों के भी भाष्य हैं, परन्तु उपनिषदों पर समन्वयात्मक भाष्य जैसा शंकराचार्य का है, वैसा अन्य किसी का नहीं है।

 

जन्म :शंकराचार्य का जन्म दक्षिण भारत के केरल में अवस्थित निम्बूदरीपाद ब्राह्मणों के 'कालडी़ ग्राम' में 788 ई. में हुआ था। उन्होंने अपने जीवन का अधिकांश समय उत्तर भारत में व्यतीत किया। उनके द्वारा स्थापित 'अद्वैत वेदांत सम्प्रदाय' 9वीं शताब्दी में काफ़ी लोकप्रिय हुआ। उन्होंने प्राचीन भारतीय उपनिषदों के सिद्धान्तों को पुनर्जीवन प्रदान करने का प्रयत्न किया। उन्होंने ईश्वर को पूर्ण वास्तविकता के रूप में स्वीकार किया और साथ ही इस संसार को भ्रम या माया बताया। उनके अनुसार अज्ञानी लोग ही ईश्वर को वास्तविक न मानकर संसार को वास्तविक मानते हैं। ज्ञानी लोगों का मुख्य उद्देश्य अपने आप को भम्र व माया से मुक्त करना एवं ईश्वर व ब्रह्म से तादाम्य स्थापित करना होना चाहिए। शंकराचार्य ने वर्ण पर आधारित ब्राह्मण प्रधान सामाजिक व्यवस्था का समर्थन किया। शंकराचार्य ने सन्न्यासी समुदाय में सुधार के लिए उपमहाद्वीप में चारों दिशाओं में चार मठों की स्थापना की। 'अवतारवाद' के अनुसार, ईश्वर तब अवतार लेता है, जब धर्म की हानि होती है। धर्म और समाज को व्यवस्थित करने के लिए ही आशुतोष शिव का आगमन आदि शकराचार्य के रूप में हुआ।

 

शिक्षा :हिन्दू धर्म की मान्यता के अनुसार आदि शंकराचार्य ने अपनी अनन्य निष्ठा के फलस्वरूप अपने सदगुरु से शास्त्रों का ज्ञान ही नहीं प्राप्त किया, बल्कि ब्रह्मत्व का भी अनुभव किया। जीवन के व्यावहारिक और आध्यात्मिक पक्ष की सत्यता को इन्होंने जहाँ काशी में घटी दो विभिन्न घटनाओं के द्वारा जाना, वहीं मंडनमिश्र से हुए शास्त्रार्थ के बाद परकाया प्रवेश द्वारा उस यथार्थ का भी अनुभव किया, जिसे सन्न्यास की मर्यादा में भोगा नहीं जा सकता। यही कारण है कि कुछ बातों के बारे में पूर्वाग्रह दिखाते हुए भी लोक संग्रह के लिए, आचार्य शंकर आध्यात्म की चरम स्थिति में किसी तरह के बंधन को स्वीकार नहीं करते। अपनी माता के जीवन के अंतिम क्षणों में पहुँचकर पुत्र होने के कर्तव्य का पालन करना इस संदर्भ में अत्यंत महत्त्वपूर्ण घटना है।

 

रचनाएँ व व्यक्तित्व :शंकराचार्य ने उपनिषदों, श्रीमद्भगवद गीता एवं ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखे हैं। उपनिषद, ब्रह्मसूत्र एवं गीता पर लिखे गये शंकराचार्य के भाष्य को 'प्रस्थानत्रयी' के अन्तर्गत रखते हैं। शंकराचार्य ने हिन्दू धर्म के स्थायित्व, प्रचार-प्रसार एवं प्रगति में अपूर्व योगदान दिया। उनके व्यक्तितत्व में गुरु, दार्शनिक, समाज एवं धर्म सुधारक, विभिन्न मतों तथा सम्प्रदायों के समन्वयकर्ता का रूप दिखाई पड़ता है। शंकराचार्य अपने समय के उत्कृष्ट विद्वान एवं दार्शनिक थे। इतिहास में उनका स्थान इनके 'अद्वैत सिद्धान्त' के कारण अमर है। गौड़पाद के शिष्य 'गोविन्द योगी' को शंकराचार्य ने अपना प्रथम गुरु बनाया। गोविन्द योगी से उन्हें 'परमहंस' की उपाधि प्राप्त हुई। कुछ विद्वान शंकराचार्य पर बौद्ध शून्यवाद का प्रभाव देखते हैं तथा उन्हें 'प्रच्छन्न बौद्ध' की संज्ञा देते हैं।

 

मोक्ष और ज्ञान :आचार्य शंकर जीवन में धर्म, अर्थ और काम को निरर्थक मानते हैं। वे ज्ञान को अद्वैत ज्ञान की परम साधना मानते हैं, क्योंकि ज्ञान समस्त कर्मों को जलाकर भस्म कर देता है। सृष्टि का विवेचन करते समय कि इसकी उत्पत्ति कैसे होती है?, वे इसका मूल कारण ब्रह्म को मानते हैं। वह ब्रह्म अपनी 'माया' शक्ति के सहयोग से इस सृष्टि का निर्माण करता है, ऐसी उनकी धारणा है। लेकिन यहाँ यह नहीं भूलना चाहिए कि शक्ति और शक्तिमान एक ही हैं। दोनों में कोई अंतर नहीं है। इस प्रकार सृष्टि के विवेचन से एक बात और भी स्पष्ट होती है कि परमात्मा को सर्वव्यापक कहना भी भूल है, क्योंकि वह सर्वरूप है। वह अनेकरूप हो गया, 'यह अनेकता है ही नहीं', 'मैं एक हूँ बहुत हो जाऊँ' अद्धैत मत का यह कथन संकेत करता है कि शैतान या बुरी आत्मा का कोई अस्तित्व नहीं है। ऐसा कहीं दिखाई भी देता है, तो वह वस्तुतः नहीं है भ्रम है बस। जीवों और ब्रह्मैव नापरः- जीव ही ब्रह्म है अन्य नहीं।

 

जगदगुरु :चार मठों की स्थापना, दशनाम सन्न्यास को सुव्यवस्थित रूप देना, सगुण-निर्गण का भेद मिटाने का प्रयास, हरिहर निष्ठा की स्थापना ये कार्य ही उन्हें 'जगदगुरु' पद पर प्रतिष्ठित करते हैं। स्वामी विवेकानन्द, स्वामी रामतीर्थ जैसे युवा सन्न्यासियों ने विदेशों में जाकर जिस वेदांत का घोष किया, वह शंकर वेदांत ही तो था। जगदगुरु कहलाना, केवल उस परम्परा का निर्वाह करना और स्वयं को उस रूप में प्रतिष्ठित करना बिल्कुल अलग-अलग बातें हैं। आज भारत को एक ऐसे ही महान व्यक्तित्व की आवश्यकता है, जिसमें योगी, कवि, भक्त, कर्मनिष्ठ और शास्त्रीय ज्ञान के साथ ही जनकल्याण की भावना हो, जो सत्य के लिए सर्वस्व का त्याग करने को उद्यत हो।

 

शंकराचार्य का कथन :शंकराचार्य का कथन है कि अद्वैत दर्शन की परम्परा अत्यन्त प्राचीन है और उपनिषदों की शिक्षा पर अवलम्बित है। अद्वैत दर्शन के तीन पहलू हैं-तत्व मीमांसाज्ञान मीमांसाआचार दर्शनइनका अलग-अलग विकास शंकराचार्य के बाद के वैदान्तियों ने किया। तत्व मीमांसा की दृष्टि से अद्वैतवाद का अर्थ है कि सभी प्रकार के द्वैत या भेद का निषेध। अन्तिम तत्व ब्रह्म एक और अद्वय है। उसमें स्वगत, स्वजातीय तथा विजातीय किसी भी प्रकार का द्वैत नहीं है। ब्रह्म निरवयव, अविभाज्य और अनन्त है। उसे सच्चिदानंद या 'सत्यं, ज्ञानं, अनन्तम् ब्रह्मा' भी कहा गया है। असत् का निषेध करने से जो प्राप्त हो, वह सत्, अचित् का निषेध करने से जो प्राप्त हो, वह चित् और दु:ख का निषेध करने से जो प्राप्त हो, वह आनंद है। यह ब्रह्मा का स्वरूप लक्षण है, परन्तु यहाँ ध्यान रखने की बात यह है कि सत्, चित् और आनंद न तो ब्रह्म के तीन पहलू हैं, न ही ब्रह्म के तीन अंश और न ब्रह्म के तीन विशेषण हैं। जो सत् है वही चित है और वही आनंद भी है। दृष्टि भेद के कारण उसे सच्चिदानंद कहा गया है- असत् की दृष्टि से वह सत् अचित् की दृष्टि से चित् और दु:ख की दृष्टि से आनंद है।

 

अज्ञानता तथा मुक्ति :अज्ञान के कारण जीव अपने स्वरूप को भूल कर अपने को कर्ता-भोक्ता समझता है। इसी से उसको शरीर धारण करना पड़ता है और बार-बार संसार में आना पड़ता है। यही बंधन है। इस बंधन से छुटकारा तभी मिलता है, जब अज्ञान का नाश होता है और जीव अपने को शुद्ध चैतन्य ब्रह्म के रूप में जान जाता है। शरीर रहते हुए भी ज्ञान के हो जाने पर जीव मुक्त हो सकता है, क्योंकि शरीर तभी तक बंधन है, जब तक जीव अपने को आत्मा रूप में न जानकर अपने को शरीर, इन्द्रिय, मन आदि के रूप में समझता है। इसी से वेदान्त में जीवनमुक्ति और विदेहमुक्ति नाम की दो प्रकार की मुक्ति मानी गयी हैं। ज्ञान हो जाने के बाद भी प्रारब्ध भोग के लिए शरीर कुम्हार के चक्र के समान पूर्वप्रेरित गति के कारण चलता रहता है। शरीर छूटने पर ज्ञानी विदेह मुक्ति प्राप्त करता है।

आचार्य चाणक्य

 



कौटिल्य अथवा 'चाणक्य' अथवा 'विष्णुगुप्त' (जन्म- अनुमानत: ईसा पूर्व 370, पंजाब; मृत्यु- अनुमानत: ईसा पूर्व 283, पाटलिपुत्र) सम्पूर्ण विश्व में एक महान राजनीतिज्ञ और मौर्य सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य के महामंत्री के रूप में प्रसिद्ध हैं। इनका व्यक्तिवाचक नाम 'विष्णुगुप्त', स्थानीय नाम 'चाणक्य' (चाणक्यवासी) और गोत्र नाम 'कौटिल्य' (कुटिल से) था। ये चन्द्रगुप्त मौर्य के प्रधानमन्त्री थे। चाणक्य का नाम संभवत उनके गोत्र का नाम 'चणक', पिता के नाम 'चणक' अथवा स्थान का नाम 'चणक' का परिवर्तित रूप रहा होगा। चाणक्य नाम से प्रसिद्ध एक नीतिग्रन्थ 'चाणक्यनीति' भी प्रचलित है। तक्षशिला की प्रसिद्धि महान अर्थशास्त्री चाणक्य के कारण भी है, जो यहाँ प्राध्यापक था और जिसने चन्द्रगुप्त के साथ मिलकर मौर्य साम्राज्य की नींव डाली। 'मुद्राराक्षस' में कहा गया है कि राजा नन्द ने भरे दरबार में चाणक्य को उसके उस पद से हटा दिया, जो उसे दरबार में दिया गया था। इस पर चाणक्य ने शपथ ली कि वह उसके परिवार तथा वंश को निर्मूल करके नन्द से बदला लेगा। 'बृहत्कथाकोश' के अनुसार चाणक्य की पत्नी का नाम 'यशोमती' था।[1]

 

जन्म तथा शिक्षा:माना जाता है कि चाणक्य ने ईसा से 370 वर्ष पूर्व ऋषि चणक के पुत्र के रूप में जन्म लिया था। वही उनके आरंभिक काल के गुरु थे। कुछ इतिहासकार मानते हैं कि चणक केवल उनके गुरु थे। चणक के ही शिष्य होने के नाते उनका नाम 'चाणक्य' पड़ा। उस समय का कोई प्रामाणिक इतिहास उपलब्ध नहीं है। इतिहासकारों ने प्राप्त सूचनाओं के आधार पर अपनी-अपनी धारणाएं बनाई। परंतु यह सर्वसम्मत है कि चाणक्य की आरंभिक शिक्षा गुरु चणक द्वारा ही दी गई। संस्कृत ज्ञान तथा वेद-पुराण आदि धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन चाणक्य ने उन्हीं के निर्देशन में किया। चाणक्य मेधावी छात्र थे। गुरु उनकी शिक्षा ग्रहण करने की तीव्र क्षमता से अत्यंत प्रसन्न थे। तत्कालीन समय में सभी सूचनाएं व विधाएं धर्मग्रंथों के माध्यम से ही प्राप्त होती थीं। अत: धार्मिक पुस्तकों का अध्ययन शिक्षा प्राप्त का एकमात्र साधन था। चाणक्य ने किशोरावस्था में ही उन ग्रंथों का सारा ज्ञान ग्रहण कर लिया था।[2]

 

अर्थशास्त्र :इन्होंने 'अर्थशास्त्र' नामक एक ग्रन्थ की रचना की, जो तत्कालीन राजनीति, अर्थनीति, इतिहास, आचरण शास्त्र, धर्म आदि पर भली भाँति प्रकाश डालता है। 'अर्थशास्त्र' मौर्य काल के समाज का दर्पण है, जिसमें समाज के स्वरूप को सर्वागं देखा जा सकता है। अर्थशास्त्र से धार्मिक जीवन पर भी काफ़ी प्रकाश पड़ता है। उस समय बहुत से देवताओं तथा देवियों की पूजा होती थी। न केवल बड़े देवता-देवी अपितु यक्ष, गन्धर्व, पर्वत, नदी, वृक्ष, अग्नि, पक्षी, सर्प, गाय आदि की भी पूजा होती थी। महामारी, पशुरोग, भूत, अग्नि, बाढ़, सूखा, अकाल आदि से बचने के लिए भी बहुत से धार्मिक कृत्य किये जाते थे। अनेक उत्सव, जादू टोने आदि का भी प्रचार था। अर्थशास्त्र राजनीति का उत्कृट ग्रन्थ है, जिसने परवर्ती राजधर्म को प्रभावित किया। चाणक्य ने अर्थशास्त्र में वार्ता (अर्थशास्त्र) तथा दण्डनीति (राज्यशासन) के साथ आन्वीक्षिकी (तर्कशास्त्र) तथा त्रयी (वैदिक ग्रन्थों) पर भी काफ़ी बल दिया है। अर्थशास्त्र के अनुसार यह राज्य का धर्म है कि वह देखे कि प्रजा वर्णाश्रम धर्म का 'उचित पालन करती है कि नहीं।[3]

 

दर्शनशास्त्र :औशनस दंडनीति को ही एकमात्र विद्या मानते हैं। बार्हस्पत्य वार्ता और दंडनीति इन विधाओं को मानते थे। मानव त्रयी (वेद), वार्ता और दंडनीति इन तीन विधाओं को मानते हैं। वे सभी आचार्य आन्वीक्षिकी (दर्शनशास्त्र) को कोई स्वतंत्र विद्या या शास्त्र नहीं मानते थे। किन्तु कौटिल्य आन्वीक्षिकी को एक पृथक विद्या मानते हुए कहते हैं कि आन्वीक्षिकी, त्रयी, वार्ता और दंडनीति ये चार विद्याएं हैं। आन्वीक्षिकी के अंतर्गत वे सांख्य योग और लोकायत को रखते हैं। उनके मत से आन्वीक्षिकी अन्य तीनों विद्याओं के बलाबल (प्रामाण्य या अप्रामाण्य) का निर्धारण हेतुओं से करती हैं। निश्चय ही आन्वीक्षिकी के सर्वाधिक महत्व को सर्वप्रथम कौटिल्य ने ही प्रतिपादित किया है। उनका कहना है-प्रदीप: सर्वविद्ययानामुपाय: सर्वकर्मणाम्।आश्रय: सर्वधर्माणां शश्वदान्वीक्षिकी मता।।अर्थात् आन्वीक्षिकी सभी विद्याओं का शाश्वत प्रदीप, सभी कार्यों का शाश्वत साधन और सभी धर्मों का शाश्वत आश्रय है। कौटिल्य ने जैसे अर्थशास्त्र नामक एक नये शास्त्र का प्रवर्तन किया वैसे ही उन्होंने आन्वीक्षिकी के सही स्वरूप की भी संस्थापना की है।दंड या राजशासन प्रजा को धर्म, अर्थ और काम में प्रवृत्त करता है। यह दंड या राजशासन ही कौटिल्य के अर्थशास्त्र का मुख्य वर्ण्य विषय है। आधुनिक अनुशीलनों से सिद्ध है कि कौटिल्य ने जिस राज्य की अवधारणा की थी, वह एक लोक कल्याणकारी राज्य (बेलफ़ेयर स्टेट) है। यद्यपि वे साम्राज्यवादी थे और मानते थे कि धर्म, व्यवहार, चरित्र और राज्य शासन क़ानून के चार पाद हैं और इन पादों में उत्तरोत्तर पाद पूर्वपाद से अधिक प्रमाणिक और सबल हैं, तथापि उनके मत से सम्राट निरंकुश नहीं हैं। सम्राट को वर्णाश्रम की व्यवस्था का पालन एवं संरक्षण करना चाहिए, क्योंकि वर्णाश्रम धर्म के नष्ट हो जाने पर समस्त पूजा का नाश हो जाता है। ऐसा इसलिए होता है कि तब प्रजा किंकर्तव्यविमुख हो जाती है और अराजकता की स्थिति पैदा हो जाती है।पुनश्च, कौटिल्य मानते हैं कि अर्थ ही प्रधान पुरुषार्थ है और धर्म तथा काम अर्थ पर निर्भर करते हैं। 'अर्थ एवं प्रधान: इति कौटिल्य: अर्थमूलौ हि धर्मकामाविति'। फिर अर्थ की परिभाषा देते हुए वे कहते हैं कि मनुष्यों की वृत्ति अर्थ है या मनुष्यवती भूमि अर्थ है। इस अर्थ के लाभ और पालन के उपाय को बतलाने वाला शास्त्र अर्थशास्त्र है। इस प्रकार कौटिल्य के अर्थशास्त्र में आधुनिक राजनीति और आधुनिक अर्थशास्त्र दोनों का विधान है। कौटिल्य ने राजसत्ता और अर्थ को अन्योन्याश्रित माना है। यह एक शास्त्र है और प्रत्येक शास्त्र लोकहित का वर्धक होता है। अत: अर्थशास्त्र भी लोकहित का ही सम्पादन करता है। यदि कर्तव्यवश किसी राजा या दूत को अपने शत्रुओं से छल करने की शिक्षा यह शास्त्र देता है तो इस कारण इस शास्त्र को असत्शास्त्र या वंचनाशास्त्र नहीं कहा जा सकता। यह व्यक्ति विशेष की परिस्थिति का दायित्व है, जिसे कोई यथार्थवादी नकार नहीं सकता। अद्वैतवेदांती आनन्दगिरि ने अर्थशास्त्र विषयक चिंतन को शिष्टों का परमार्थ चिन्तन माना है, क्योंकि जो सुख है, वह अर्थघ्न नहीं हो सकता-'न चार्थचनं सुखम्'। पुनश्च, जिस अर्थ साधन का विधान अर्थशास्त्र करता है, वह त्रिवर्ग का साधक है, अथ च धर्म और काम पुरुषार्था का उन्नायक है। वास्तव में मूलत: अर्थशास्त्र का एकमात्र प्रयोजन प्रजा के सुख तथा हित का संवर्धन करना है। इसका औचित्य आन्वीक्षिकी पर आधारित है और इस कारण कौटिल्य के अर्थशास्त्र में समाज दर्शन, राजनीति दर्शन, अर्थ दर्शन और विधि दर्शन के सिद्धांत निहित और चर्चित हैं।अर्थशास्त्र 32 युक्तियों से युक्त होने के कारण एक शास्त्र है। वे युक्तियाँ अर्थशास्त्र के अंतिम अध्याय में वर्णित हैं।ज्ञानमीमांसा और तर्कशास्त्र के दृष्टिकोण से इन तंत्रयुक्तियों का महत्व अत्यधिक है। आधुनिक युग में एक्ज़ियोमैटिक्स (अभिगृहीतमीमांसा), संप्रत्यात्मक योजना (कनसेप्चुअल स्कीम) का तथा अधिसद्धांत (मेटा-थियरी) की जो परिकल्पनाएं की गई हैं, वे सब तंत्रयुक्ति के अंतर्गत आ जाती हैं। किसी शास्त्र या विज्ञान की वैज्ञानिकता की कसौटी के रूप में आज भी इनका महत्त्व अक्षुण्ण है। यह दूसरी बात है कि आज इन तंत्रयुक्तियों के नये वर्गीकरण किये गए हैं और कुछेक को जोड़ा और हटाया भी गया है। किन्तु कौटिल्य ने इनका प्राविधान किया है और इनके बल पर अर्थशास्त्र को एक शास्त्र या विज्ञान सिद्ध किया है। यह केवल ऐतिहासिक दृष्टि से ही अभूतपूर्व कार्य नहीं था, अपितु तार्किक संकल्पना की दृष्टि से भी इसका महत्व अभूतपूर्व था। अत: कौटिल्य का योगदान तर्कशास्त्र में भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।

 

समाज की अवधारणा :कौटिल्य ने जिस समाज की अवधारणा की है, उसका प्राण तत्व राजा या राजसत्ता (स्टेट) है। राजसत्ता के अभाव में मात्स्यन्याय तथा अराजकता उत्पन्न होती है, परन्तु राजसत्ता पर भी धर्म का अनुशासन रहता है, क्योंकि धर्म राजसत्ता का पूर्ववर्ती और प्रेरक तत्व है। इस प्रकार कौटिल्य का समाज आर्यों का वर्णाश्रम धर्म से अनुशासित समाज ही है। परन्तु उसके अनुसार आर्यों में दास प्रथा का अभाव है। उन्होंने लिखा है कि कोई आर्य दास नहीं हो सकता- 'नेत्वेवार्यस्य दासभाव:'। दास केवल वे ही हो सकते हैं, जो अनार्य या म्लेच्छ हों। परन्तु आर्यों में भी आपत्ति के समय कुछ काल के लिए दास बनाये जाते थे, बनाये जा सकते हैं, ऐसा कौटिल्य ने लिखा है। किन्तु आदर्श रूप में उन्होंने यही माना है कि यथा सम्भव आर्यों में दास भाव नहीं होना चाहिए। इसी आधार पर मैगस्थनीज ने लिखा था कि मौर्य काल में भारतीयों में वह दास प्रथा नहीं थी, जो यूनानियों में थी। किन्तु आर्यों का समाज ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्णों में बंटा था और प्रत्येक वर्ण के व्यक्तियों के शासत्रानुमोदित कर्तव्य थे। यद्यपि नियमत: कोई व्यक्ति अपने पैतृक व्यवसाय के अतिरिक्त दूसरे वर्ण का व्यवसाय नहीं कर सकता था, तथापि कुछेक लोग ऐसा व्यवसाय परिवर्तन कर लेते थे। कौटिल्य ने ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों के लिए ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा सन्न्यास आश्रमों का विधान किया है। किन्तु जब तक किसी व्यक्ति के ऊपर घरेलू दायित्व है, तब तक उसे वानप्रस्थ या सन्न्यास आश्रम में नहीं जाना चाहिए, ऐसा उनका मत है। इसी प्रकार जो स्त्रियां सन्तान पैदा कर सकती हैं, उन्हें सन्न्यास ग्रहण करने का उपदेश देना कौटिल्य की दृष्टि में अनुचित है। इससे स्पष्ट है कि कौटिल्य ने गृहस्थ आश्रम सुदृढ़ करने का अथक परिश्रम किया है। विवाह के बारे में कौटिल्य का मत मनु के मत की तुलना में कुछ प्रगतिशील है। समाज में जितने प्रकार के विवाह होते थे, उन सबको कौटिल्य ने प्रामाणित माना है। किसी प्रकार घृणा या हीनता की दृष्टि से उनको नहीं देखा गया है। ब्राह्मण आदि प्रथम चार प्रकार के विवाहों में पिता ही प्रमाण है और गंधर्व आदि चार विवाहों में माता तथा पिता दोनों प्रमाण हैं। अंतर्जीतीय विवाह, विधवा विवाह तथा तलाक की प्रथाएं भी उस समय प्रचलित थीं।किन्तु कौटिल्य के समाज की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वह एक सार्वभौम समाज था। वह सभी जातियों और देशों के लिए हितकर था। यह कहने में अतिशियोक्ति नहीं है कि तत्कालीन विश्व में कौटिल्य का समाज निश्चय ही सर्वाधिक मानववादी और जनवादी था। राजसत्ता का उद्देश्य प्रजा के सुख और हित का संवर्धन तथा संरक्षण करना था। प्रतिदिन उठते ही शासक को सोचना चाहिए कि प्रजा का आर्थिक उत्थान किस प्रकार हो और अर्थानुशासन कैसे स्थापित हो। उन्नति का मूल आर्थिक उन्नति है।प्रजासुखे संखु राज्ञ: प्रजानां च हिते हितम्।नात्मप्रियं हितं राज्ञ: प्रजानां तु प्रियं हितम्।।तस्मान्नित्योत्थतो राजा कुर्यादर्थानुशासनम्।अर्थस्यमूलमुत्थानमनर्थस्य विषर्यय:।।

स्वामी विवेकानन्द

 


स्वामी विवेकानन्द (अंग्रेज़ी: Swami Vivekananda, जन्म: 12 जनवरी, 1863 कलकत्ता - मृत्यु: 4 जुलाई, 1902 बेलूर) एक युवा संन्यासी के रूप में भारतीय संस्कृति की सुगन्ध विदेशों में बिखरने वाले साहित्य, दर्शन और इतिहास के प्रकाण्ड विद्वान थे। विवेकानन्द जी का मूल नाम 'नरेंद्रनाथ दत्त' था, जो कि आगे चलकर स्वामी विवेकानन्द के नाम से विख्यात हुए। युगांतरकारी आध्यात्मिक गुरु, जिन्होंने हिन्दू धर्म को गतिशील तथा व्यवहारिक बनाया और सुदृढ़ सभ्यता के निर्माण के लिए आधुनिक मानव से पश्चिमी विज्ञान व भौतिकवाद को भारत की आध्यात्मिक संस्कृति से जोड़ने का आग्रह किया। कलकत्ता के एक कुलीन परिवार में जन्मे नरेंद्रनाथ चिंतन, भक्ति व तार्किकता, भौतिक एवं बौद्धिक श्रेष्ठता के साथ-साथ संगीत की प्रतिभा का एक विलक्षण संयोग थे। भारत में स्वामी विवेकानन्द के जन्म दिवस को राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है।

 

जीवन परिचय:श्री विश्वनाथदत्त पाश्चात्य सभ्यता में आस्था रखने वाले व्यक्ति थे। श्री विश्वनाथदत्त के घर में उत्पन्न होने वाला उनका पुत्र नरेन्द्रदत्त पाश्चात्य जगत् को भारतीय तत्त्वज्ञान का सन्देश सुनाने वाला महान विश्व-गुरु बना। स्वामी विवेकानन्द का जन्म 12 जनवरी 1863 में कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता), भारत में हुआ। रोमा रोलाँ ने नरेन्द्रदत्त (भावी विवेकानन्द) के सम्बन्ध में ठीक कहा है- 'उनका बचपन और युवावस्था के बीच का काल योरोप के पुनरूज्जीवन-युग के किसी कलाकार राजपुत्र के जीवन-प्रभात का स्मरण दिलाता है।' बचपन से ही नरेन्द्र में आध्यात्मिक पिपासा थी। सन् 1884 में पिता की मृत्यु के पश्चात परिवार के भरण-पोषण का भार भी उन्हीं पर पड़ा। स्वामी विवेकानन्द ग़रीब परिवार के थे। नरेन्द्र का विवाह नहीं हुआ था। दुर्बल आर्थिक स्थिति में स्वयं भूखे रहकर अतिथियों के सत्कार की गौरव-गाथा उनके जीवन का उज्ज्वल अध्याय है। नरेन्द्र की प्रतिभा अपूर्व थी। उन्होंने बचपन में ही दर्शनों का अध्ययन कर लिया। ब्रह्मसमाज में भी वे गये, पर वहाँ उनकी जिज्ञासा शान्त न हुई। प्रखर बुद्धि साधना में समाधान न पाकर नास्तिक हो चली।

 

शिक्षा :1879 में 16 वर्ष की आयु में उन्होंने कलकत्ता से प्रवेश परीक्षा पास की। अपने शिक्षा काल में वे सर्वाधिक लोकप्रिय और एक जिज्ञासु छात्र थे। किन्तु हरबर्ट स्पेन्सर[1] के नास्तिकवाद का उन पर पूरा प्रभाव था। उन्होंने से स्नातक उपाधि प्राप्त की और ब्रह्म समाज में शामिल हुए, जो हिन्दू धर्म में सुधार लाने तथा उसे आधुनिक बनाने का प्रयास कर रहा था।

 

रामकृष्ण से भेंट :युवावस्था में उन्हें पाश्चात्य दार्शनिकों के निरीश्वर भौतिकवाद तथा ईश्वर के अस्तित्व में दृढ़ भारतीय विश्वास के कारण गहरे द्वंद्व से गुज़रना पड़ा। परमहंस जी जैसे जौहरी ने रत्न को परखा। उन दिव्य महापुरुष के स्पर्श ने नरेन्द्र को बदल दिया। इसी समय उनकी भेंट अपने गुरु रामकृष्ण से हुई, जिन्होंने पहले उन्हें विश्वास दिलाया कि ईश्वर वास्तव में है और मनुष्य ईश्वर को पा सकता है। रामकृष्ण ने सर्वव्यापी परमसत्य के रूप में ईश्वर की सर्वोच्च अनुभूति पाने में नरेंद्र का मार्गदर्शन किया और उन्हें शिक्षा दी कि सेवा कभी दान नहीं, बल्कि सारी मानवता में निहित ईश्वर की सचेतन आराधना होनी चाहिए। यह उपदेश विवेकानंद के जीवन का प्रमुख दर्शन बन गया। कहा जाता है कि उस शक्तिपात के कारण कुछ दिनों तक नरेन्द्र उन्मत्त-से रहे। उन्हें गुरु ने आत्मदर्शन करा दिया था। पचीस वर्ष की अवस्था में नरेन्द्रदत्त ने काषायवस्त्र धारण किये। अपने गुरु से प्रेरित होकर नरेंद्रनाथ ने सन्न्यासी जीवन बिताने की दीक्षा ली और स्वामी विवेकानंद के रूप में जाने गए। जीवन के आलोक को जगत के अन्धकार में भटकते प्राणियों के समक्ष उन्हें उपस्थित करना था। स्वामी विवेकानंद ने पैदल ही पूरे भारत की यात्रा की।

 

देश का पुनर्निर्माण :रामकृष्ण की मृत्यु के बाद उन्होंने स्वयं को हिमालय में चिंतनरूपी आनंद सागर में डुबाने की चेष्टा की, लेकिन जल्दी ही वह इसे त्यागकर भारत की कारुणिक निर्धनता से साक्षात्कार करने और देश के पुनर्निर्माण के लिए समूचे भारत में भ्रमण पर निकल पड़े। इस दौरान उन्हें कई दिनों तक भूखे भी रहना पड़ा। इन छ्ह वर्षों के भ्रमण काल में वह राजाओं और दलितों, दोनों के अतिथि रहे। उनकी यह महान यात्रा कन्याकुमारी में समाप्त हुई, जहाँ ध्यानमग्न विवेकानंद को यह ज्ञान प्राप्त हुआ कि राष्ट्रीय पुनर्निर्माण की ओर रुझान वाले नए भारतीय वैरागियों और सभी आत्माओं, विशेषकर जनसाधारण की सुप्त दिव्यता के जागरण से ही इस मृतप्राय देश में प्राणों का संचार किया जा सकता है। भारत के पुनर्निर्माण के प्रति उनके लगाव ने ही उन्हें अंततः 1893 में शिकागो धर्म संसद में जाने के लिए प्रेरित किया, जहाँ वह बिना आमंत्रण के गए थे, परिषद में उनके प्रवेश की अनुमति मिलनी ही कठिन हो गयी। उनको समय न मिले, इसका भरपूर प्रयत्न किया गया। भला, पराधीन भारत क्या सन्देश देगा- योरोपीय वर्ग को तो भारत के नाम से ही घृणा थी। एक अमेरिकन प्रोफेसर के उद्योग से किसी प्रकार समय मिला और 11 सितंबर सन् 1893 के उस दिन उनके अलौकिक तत्वज्ञान ने पाश्चात्य जगत को चौंका दिया। अमेरिका ने स्वीकार कर लिया कि वस्तुत: भारत ही जगद्गुरु था और रहेगा। स्वामी विवेकानन्द ने वहाँ भारत और हिन्दू धर्म की भव्यता स्थापित करके ज़बरदस्त प्रभाव छोड़ा। 'सिस्टर्स ऐंड ब्रदर्स ऑफ़ अमेरिका' (अमेरिकी बहनों और भाइयों) के संबोधन के साथ अपने भाषण की शुरुआत करते ही 7000 प्रतिनिधियों ने तालियों के साथ उनका स्वागत किया। विवेकानंद ने वहाँ एकत्र लोगों को सभी मानवों की अनिवार्य दिव्यता के प्राचीन वेदांतिक संदेश और सभी धर्मों में निहित एकता से परिचित कराया। सन् 1896 तक वे अमेरिका रहे। उन्हीं का व्यक्तित्व था, जिसने भारत एवं हिन्दू-धर्म के गौरव को प्रथम बार विदेशों में जागृत किया। धर्म एवं तत्वज्ञान के समान भारतीय स्वतन्त्रता की प्रेरणा का भी उन्होंने नेतृत्व किया। स्वामी विवेकानन्द कहा करते थे- 'मैं कोई तत्ववेत्ता नहीं हूँ। न तो संत या दार्शनिक ही हूँ। मैं तो ग़रीब हूँ और ग़रीबों का अनन्य भक्त हूँ। मैं तो सच्चा महात्मा उसे ही कहूँगा, जिसका हृदय ग़रीबों के लिये तड़पता हो।'

 

शिष्यों का समूह :पाँच वर्षों से अधिक समय तक उन्होंने अमेरिका के विभिन्न नगरों, लंदन और पेरिस में व्यापक व्याख्यान दिए। उन्होंने जर्मनी, रूस और पूर्वी यूरोप की भी यात्राएं कीं। हर जगह उन्होंने वेदांत के संदेश का प्रचार किया। कुछ अवसरों पर वह चरम अवस्था में पहुँच जाते थे, यहाँ तक कि पश्चिम के भीड़ भरे सभागारों में भी। यहाँ उन्होंने समर्पित शिष्यों का समूह बनाया और उनमें से कुछ को अमेरिका के 'थाउज़ेंड आइलैंड पार्क' में आध्यात्मिक जीवन में प्रशिक्षित किया। उनके कुछ शिष्यों ने उनका भारत तक अनुसरण किया। स्वामी विवेकानन्द ने विश्व भ्रमण के साथ उत्तराखण्ड के अनेक क्षेत्रों में भी भ्रमण किया जिनमें अल्मोड़ा तथा चम्पावत में उनकी विश्राम स्थली को धरोहर के रूप में सुरक्षित किया गया है।

 

वेदांत धर्म:1897 में जब विवेकानंद भारत लौटे, तो राष्ट्र ने अभूतपूर्व उत्साह के साथ उनका स्वागत किया और उनके द्वारा दिए गए वेदांत के मानवतावादी, गतिशील तथा प्रायोगिक संदेश ने हज़ारों लोगों को प्रभावित किया। स्वामी विवेकानन्द ने सदियों के आलस्य को त्यागने के लिए भारतीयों को प्रेरित किया और उन्हें विश्व नेता के रूप में नए आत्मविश्वास के साथ उठ खड़े होने तथा दलितों व महिलाओं को शिक्षित करने तथा उनके उत्थान के माध्यम से देश को ऊपर उठाने का संदेश दिया। स्वामी विवेकानन्द ने घोषणा की कि सभी कार्यों और सेवाओं को मानव में पूर्णतः व्याप्त ईश्वर की परम आराधना बनाकर वेदांत धर्म को व्यवहारिक बनाया जाना ज़रूरी है। वह चाहते है कि भारत पश्चिमी देशों में भी आध्यात्मिकता का प्रसार करे। स्वामी विवेकानन्द ने घोषणा की कि सिर्फ़ अद्वैत वेदांत के आधार पर ही विज्ञान और धर्म साथ-साथ चल सकते हैं, क्योंकि इसके मूल में अवैयक्तिक ईश्वर की आधारभूत धारणा, सीमा के अंदर निहित अनंत और ब्रह्मांड में उपस्थित सभी वस्तुओं के पारस्परिक मौलिक संबंध की दृष्टि है। उन्होंने सभ्यता को मनुष्य में दिव्यता के प्रतिरूप के तौर पर परिभाषित किया और यह भविष्यवाणी भी की कि एक दिन पश्चिम जीवन की अनिवार्य दिव्यता के वेदांतिक सिद्धान्त की ओर आकर्षित होगा। विवेकानंद के संदेश ने पश्चिम के विशिष्ट बौद्धिकों, जैसे विलियम जेम्स, निकोलस टेसला, अभिनेत्री सारा बर्नहार्ड और मादाम एम्मा काल्व, एंग्लिकन चर्च, लंदन के धार्मिक चिंतन रेवरेंड कैनन विल्वरफ़ोर्स, और रेवरेंड होवीस तथा सर पैट्रिक गेडेस, हाइसिंथ लॉयसन, सर हाइरैम नैक्सिम, नेल्सन रॉकफ़ेलर, लिओ टॉल्स्टॉय व रोम्यां रोलां को भी प्रभावित किया। अंग्रेज़ भारतविद ए. एल बाशम ने विवेकानंद को इतिहास का पहला व्यक्ति बताया, जिन्होंने पूर्व की आध्यात्मिक संस्कृति के मित्रतापूर्ण प्रत्युत्तर का आरंभ किया और उन्हें आधुनिक विश्व को आकार देने वाला घोषित किया।

 

मसीहा के रूप में :अरबिंदो घोष, सुभाषचंद्र बोस, सर जमशेदजी टाटा, रबींद्रनाथ टैगोर तथा महात्मा गांधी जैसे महान व्यक्तियों ने स्वामी विवेकानन्द को भारत की आत्मा को जागृत करने वाला और भारतीय राष्ट्रवाद के मसीहा के रूप में देखा। विवेकानंद 'सार्वभौमिकता' के मसीहा के रूप में उभरे। स्वामी विवेकानन्द पहले अंतरराष्ट्रवादी थे, जिन्होंने 'लीग ऑफ़ नेशन्स' के जन्म से भी पहले वर्ष 1897 में अंतर्राष्ट्रीय संगठनों,गठबंधनों और क़ानूनों का आह्वान किया, जिससे राष्ट्रों के बीच समन्वय स्थापित किया जा सके।

 

स्वामी विवेकानंद द्वारा स्थापित:विवेकानंद ने 1 मई 1897 में कलकत्ता में रामकृष्ण मिशन और 9 दिसंबर 1898 को कलकत्ता के निकट गंगा नदी के किनारे बेलूर में रामकृष्ण मठ की स्थापना की। उनके अंग्रेज़ अनुयायी कैप्टन सर्वियर और उनकी पत्नी ने हिमालय में 1899 में 'मायावती अद्वैत आश्रम' खोला। इसे सार्वभौमिक चेतना के अद्वैत दृष्टिकोण के एक अद्वितीय संस्थान के रूप में शुरू किया गया और विवेकानंद की इच्छानुसार, इसे उनके पूर्वी और पश्चिमी अनुयायियों का सम्मिलन केंद्र बनाया गया। विवेकानंद ने बेलूर में एक दृश्य प्रतीक के रूप में सभी प्रमुख धर्मों के वास्तुशास्त्र के समन्वय पर आधारित रामकृष्ण मंदिर के भावी आकार की रूपरेखा भी बनाई, जिसे 1937 में उनके साथी शिष्यों ने पूरा किया।ग्रन्थों की रचना :'योग', 'राजयोग' तथा 'ज्ञानयोग' जैसे ग्रंथों की रचना करके विवेकानन्द ने युवा जगत को एक नई राह दिखाई है, जिसका प्रभाव जनमानस पर युगों-युगों तक छाया रहेगा। कन्याकुमारी में निर्मित उनका स्मारक आज भी उनकी महानता की कहानी कह रहा है।

 

मृत्यु:उनके ओजस्वी और सारगर्भित व्याख्यानों की प्रसिद्धि विश्वभर में है। जीवन के अंतिम दिन उन्होंने शुक्ल यजुर्वेद की व्याख्या की और कहा एक और विवेकानंद चाहिए, यह समझने के लिए कि इस विवेकानंद ने अब तक क्या किया है। प्रत्यदर्शियों के अनुसार जीवन के अंतिम दिन भी उन्होंने अपने 'ध्यान' करने की दिनचर्या को नहीं बदला और प्रात: दो तीन घंटे ध्यान किया। उन्हें दमा और शर्करा के अतिरिक्त अन्य शारीरिक व्याधियों ने घेर रखा था। उन्होंने कहा भी था, 'ये बीमारियाँ मुझे चालीस वर्ष के आयु भी पार नहीं करने देंगी।' 4 जुलाई, 1902 को बेलूर में रामकृष्ण मठ में उन्होंने ध्यानमग्न अवस्था में महासमाधि धारण कर प्राण त्याग दिए। उनके शिष्यों और अनुयायियों ने उनकी स्मृति में वहाँ एक मंदिर बनवाया और समूचे विश्व में विवेकानंद तथा उनके गुरु रामकृष्ण के संदेशों के प्रचार के लिए 130 से अधिक केंद्रों की स्थापना की।

बाल गंगाधर तिलक



बाल गंगाधर तिलक

बाल गंगाधर तिलक (अंग्रेज़ी: Bal Gangadhar Tilak, जन्म-23 जुलाई, 1856 रत्नागिरी, महाराष्ट्र ; मृत्यु- 1 अगस्त, 1920 मुंबई) विद्वान, गणितज्ञ, दार्शनिक और उग्र राष्ट्रवादी व्यक्ति थे जिन्होंने भारत की स्वतंत्रता की नींव रखने में सहायता की। उन्होंने 'इंडियन होमरूल लीग' की स्थापना सन् 1914 ई. में की और इसके अध्यक्ष रहे तथा सन् 1916 में मुहम्मद अली जिन्ना के साथ लखनऊ समझौता किया, जिसमें आज़ादी के लिए संघर्ष में हिन्दू- मुस्लिम एकता का प्रावधान था।

 

जीवन परिचय : बाल गंगाधर तिलक का जन्म 23 जुलाई, सन् 1856 ई. को भारत के रत्नागिरि नामक स्थान पर हुआ था। इनका पूरा नाम 'लोकमान्य श्री बाल गंगाधर तिलक' था। तिलक का जन्म एक सुसंस्कृत, मध्यमवर्गीय ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम 'श्री गंगाधर रामचंद्र तिलक' था। श्री गंगाधर रामचंद्र तिलक पहले रत्नागिरि में सहायक अध्यापक थे और फिर पूना तथा उसके बाद 'ठाणे' में सहायक उपशैक्षिक निरीक्षक हो गए थे। वे अपने समय के अत्यंत लोकप्रिय शिक्षक थे। उन्होंने 'त्रिकोणमिति' और 'व्याकरण' पर पुस्तकें लिखीं जो प्रकाशित हुईं। तथापि, वह अपने पुत्र की शिक्षा-दीक्षा पूरी करने के लिए अधिक समय तक जीवित नहीं रहे। लोकमान्य तिलक के पिता 'श्री गंगाधर रामचंद्र तिलक' का सन् 1872 ई. में निधन हो गया।

 

शिक्षा : बाल गंगाधर तिलक अपने पिता की मृत्यु के बाद 16 वर्ष की उम्र में अनाथ हो गए। उन्होंने तब भी बिना किसी व्यवधान के अपनी शिक्षा जारी रखी और अपने पिता की मृत्यु के चार महीने के अंदर मैट्रिक की परीक्षा पास कर ली। वे 'डेक्कन कॉलेज' में भर्ती हो गए फिर उन्होंने सन् 1876 ई. में बी.ए. आनर्स की परीक्षा वहीं से पास की सन् 1879 ई. में उन्होंने बंबई विश्वविद्यालय से एल.एल.बी. की परीक्षा पास की और क़ानून की पढ़ाई करते समय उन्होंने 'आगरकर' से दोस्ती कर ली जो बाद में 'फ़र्ग्युसन कॉलेज' के प्रिंसिपल हो गए। दोनों दोस्तों ने इस बात पर विचार करते हुए अनेक रातें गुजारीं कि वे देशवासियों की सेवा की कौन-सी सर्वोत्तम योजना बना सकते हैं। अंत में उन्होंने संकल्प किया कि वे कभी सरकारी नौकरी स्वीकार नहीं करेंगे तथा नई पीढ़ी को सस्ती और अच्छी शिक्षा प्रदान करने के लिए एक प्राइवेट हाईस्कूल और कॉलेज चलाएँगे। उनके साथी छात्र इन आदर्शवादी बातों पर उनकी हँसी उड़ाते थे। लेकिन इन उपहासों या बाहरी कठिनाइयों का कोई असर उन दोनों उत्साही युवकों पर नहीं हुआ।

 

सार्वजनिक सेवा : तिलक जी ने स्कूल के भार से स्वयं को मुक्त करने के बाद अपना अधिकांश समय सार्वजनिक सेवा में लगाने का निश्चय किया। अब उन्हें थोड़ी फुरसत मिली थी। इसी समय लड़कियों के विवाह के लिए सहमति की आयु बढ़ाने का विधेयक वाइसराय की परिषद के सामने लाया जा रहा था। तिलक पूरे उत्साह से इस विवाद में कूद पड़े, इसलिए नहीं कि वे समाज-सुधार के सिद्धांतों के विरोधी थे, बल्कि इसलिए कि वे इस क्षेत्र में ज़ोर-जबरदस्ती करने के विरुद्ध थे। सहमति की आयु का विधेयक, चाहे इसके उद्देश्य कितने ही प्रशंसनीय क्यों न रहे हों, वास्तव में हिन्दू समाज में सरकारी हस्तक्षेप से सुधार लाने का प्रयास था। अत: समाज-सुधार के कुछ कट्टर समर्थक इसके विरुद्ध थे। इस विषय में तिलक के दृष्टिकोण से पूना का समाज दो भागों, कट्टरपंथी और सुधारवादियों में बँट गया। दोनों के बीच की खाई नए मतभेदों एवं नए झगड़ों के कारण बढ़ती गई।

 

समाचार पत्र का प्रकाशन : इसके बाद उन्होंने दो साप्ताहिक समाचार पत्रों, मराठी में केसरी और अंग्रेज़ी में द मराठा, के माध्यम से लोगों की राजनीतिक चेतना को जगाने का काम शुरू किया। इन समाचार पत्रों के ज़रिये ब्रिटिश शासन तथा उदार राष्ट्रवादियों की, जो पश्चिमी तर्ज़ पर सामाजिक सुधारों एवं संवैधानिक तरीक़े से राजनीतिक सुधारों का पक्ष लेते थे, कटु आलोचना के लिए वह विख्यात हो गए। उनका मानना था कि सामाजिक सुधार में जनशक्ति खर्च करने से वह स्वाधीनता के राजनीतिक संघर्ष में पूरी तरह नहीं लग पाएगी। उन पत्रों ने देसी पत्रकारिता के क्षेत्र में शीघ्र ही अपना विशेष स्थान बना लिया। विष्णु शास्त्री चिपलूनकर ने इन दोनों समाचारपत्रों के लिए दो मुद्रणालय भी स्थापित किए। छपाई के लिए 'आर्य भूषण' और 'ललित कला' को प्रोत्साहन देने के वास्ते 'चित्रशाला' दी गई। इन गतिविधियों में कुछ समय के लिए पाँचों व्यक्ति पूरी तरह व्यस्त हो गए। उन्होंने इन कार्यों को आगे बढ़ाया। 'न्यू इंग्लिश स्कूल' ने शीघ्र ही स्कूलों में पहला स्थान प्राप्त कर लिया। 'मराठा' और 'केसरी' भी डेक्कन के प्रमुख समाचारपत्र बन गए। देशप्रेमियों के इस दल को शीघ्र ही अग्निपरीक्षा में होकर गुजरना पड़ा। केसरी और मराठा में प्रकाशित कुछ लेखों में कोल्हापुर के तत्कालीन महाराजा शिवाजी राव के साथ किए गए व्यवहार की कठोर आलोचना की गई थी। राज्य के तत्कालीन प्रशासक 'श्री एम. डब्ल्यू. बर्वे' ने इस पर मराठा और केसरी के संपादक के रूप में क्रमश: तिलक और श्री आगरकर के विरुद्ध मानहानि का मुक़दमा चला दिया। कुछ समय बाद इन लोगों की कठिनाइयाँ और बढ़ गईं क्योंकि जब यह मामला विचाराधीन था, तभी 'श्री वी.के. चिपलूनकर' का देहांत हो गया। उसके बाद 'तिलक' और 'आगरकर' को दोषी पाया गया। उन्हें चार-चार महीने की साधारण क़ैद की सज़ा सुना दी गई।

 

स्वतंत्रता संग्राम , नरम दल के लिए तिलक के विचार : भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नरम दल के लिए तिलक के विचार ज़रा ज़्यादा ही उग्र थे। नरम दल के लोग छोटे सुधारों के लिए सरकार के पास वफ़ादार प्रतिनिधिमंडल भेजने में विश्वास रखते थे। तिलक का लक्ष्य स्वराज था, छोटे- मोटे सुधार नहीं और उन्होंने कांग्रेस को अपने उग्र विचारों को स्वीकार करने के लिए राज़ी करने का प्रयास किया। इस मामले पर सन् 1907 ई. में कांग्रेस के 'सूरत अधिवेशन' में नरम दल के साथ उनका संघर्ष भी हुआ। राष्ट्रवादी शक्तियों में फूट का लाभ उठाकर सरकार ने तिलक पर राजद्रोह और आतंकवाद फ़ैलाने का आरोप लगाकर उन्हें छह वर्ष के कारावास की सज़ा दे दी और मांडले, बर्मा, वर्तमान म्यांमार में निर्वासित कर दिया। 'मांडले जेल' में तिलक ने अपनी महान कृति 'भगवद्गीता - रहस्य' का लेखन शुरू किया, जो हिन्दुओं की सबसे पवित्र पुस्तक का मूल टीका है। तिलक ने भगवद्गीता के इस रूढ़िवादी सार को ख़ारिज कर दिया कि यह पुस्तक सन्न्यास की शिक्षा देती है; उनके अनुसार, इससे मानवता के प्रति नि:स्वार्थ सेवा का संदेश मिलता है।

 

लेखक के रूप में : तिलक अपना सारा समय हलके-फुलके लेखन में लगाने वाले व्यक्ति नहीं थे। उन्होंने अब अपने ख़ाली समय का उपयोग किसी अच्छे कार्य में लगाने का संकल्प लेकर उसे अपनी प्रिय पुस्तकों भगवद्गीता और ऋग्वेद के पठन-पाठन में लगाया। वेदों के काल-निर्धारण से संबंधित अपने अनुसंधान के परिणामस्वरूप उन्होंने वेदों की प्राचीनता पर एक निबंध लिखा। जो गणित-ज्योतिषीय अवलोकन के प्रमाणों पर आधारित था। उन्होंने इस निबंध का सारांश इंटरनेशनल कांग्रेस ऑफ ओरिएंटलिस्ट के पास भेजा जो सन् 1892 ई. में लंदन में हुई। अगले वर्ष उन्होंने इस पूरे निबंध को पुस्तकाकार में दि ओरिऑन या दि रिसर्च इनटु द एंटिक्विटी ऑफ द वेदाज शीर्षक के अंतर्गत प्रकाशित किया। उन्होंने इस पुस्तक में ओरिऑन की ग्रीक परंपरा और 'लक्षत्रपुंज' के संस्कृत अर्थ 'अग्रायण या अग्रहायण' के बीच संबंध को ढूंढा है। क्योंकि अग्रहायण शब्द का अर्थ वर्ष का प्रारंभ है, वे इस नतीजे पर पहुँचते हैं कि ऋग्वेद के सभी स्रोत जिनमें इस शब्द का संदर्भ है या इसके साथ जो भी विभिन्न परंपराएँ जुड़ी थीं, की रचना ग्रीक लोगों के हिंदुओं से पृथक होने से पूर्व की गई होगी। यह वह समय रहा होगा, जब वर्ष का प्रारंभ सूर्य के ओरिऑन या मृगशिरा नक्षत्र पुंज में रहते समय अर्थात ईसा से 4000 वर्ष पहले हुआ होगा। इस पुस्तक की प्रशंसा यूरोप और अमेरिकी विद्वानों ने की। अब यह कहा जा सकता है कि तिलक के निष्कर्षों को लगभग सभी ने स्वीकार कर लिया है। अनेक प्राच्यविदों, जैसेकि - मैक्समुलर, वेबर, जेकोबी, और विटने ने लेखक की विद्वता और मौलिकता को स्वीकार किया है। पुस्तक के प्रकाशन के बाद तिलक ने कुछ समय तक प्रोफेसर मैक्समुलर और वेबर के साथ पुस्तक में उठाए गए कुछ भाषा-विज्ञानीय प्रश्नों पर दोस्ताना पत्र व्यवहार किया। इसके परिणामस्वरूप दोनों पक्ष इस बात पर सहमत हुए कि इस विषय के पक्ष और विपक्ष में बहुत कुछ कहा जा सकता है।

 

मृत्यु : सन 1919 ई. में कांग्रेस की अमृतसर बैठक में हिस्सा लेने के लिए स्वदेश लौटने के समय तक तिलक इतने नरम हो गए थे कि उन्होंने 'मॉन्टेग्यू- चेम्सफ़ोर्ड सुधारों' के ज़रिये स्थापित 'लेजिस्लेटिव काउंसिल' (विधायी परिषदों) के चुनाव के बहिष्कार की गाँधी की नीति का विरोध नहीं किया। इसके बजाय तिलक ने क्षेत्रीय सरकारों में कुछ हद तक भारतीयों की भागीदारी की शुरुआत करने वाले सुधारों को लागू करने के लिए प्रतिनिधियों को सलाह दी कि वे उनके प्रत्युत्तरपूर्ण सहयोग' की नीति का पालन करें। लेकिन नए सुधारों को निर्णायक दिशा देने से पहले ही 1 अगस्त, सन् 1920 ई. में बंबई में तिलक की मृत्यु हो गई। उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए महात्मा गाँधी ने उन्हें आधुनिक भारत का निर्माता और नेहरू जी ने भारतीय क्रांति के जनक की उपाधि दी।

महान ऋषि पिप्पलाद

पिप्पलाद उपनिषद्‍कालीन एक महान ऋषि एवं अथर्ववेद का सर्व प्रथम संकलकर्ता थे। पिप्पलाद का शब्दार्थ, 'पीपल के फल खाकर जीनेवाला' (पिप्पल...