Sunday, 27 December 2020

बच्चों को सिखाइए

 







पहले बच्चों को सूजी, मैदा और आटे में भेद करना सिखाइये


पहले बच्चों को मूंग, मसूर, उडद, चना और अरहर पहचानना सिखाइये


पहले बच्चों को मख्खन, घी, पनीर, चीज़ के बीच 

अंतर और उन्हें बनाने की जानकारी सिखाइये


पहले बच्चों को सोंठ और अदरक, अंगूर और किश

मिश, खजूर और छुहारे के बीच का अंतर सिखाइये


पहले बच्चों को दालचीनी, कोकम, राई, सरसों, जीरा और सौंफ पहचानना सिखाइये


पहले बच्चों को आलू, अदरक, हल्दी, प्याज और 

लहसुन के पौधे दिखाइये


पहले बच्चों को मेथी, पालक, चौलाई, बथुआ, 

सरसों, लाल भाजी में फर्क सिखाइये


पहले बच्चों को फलों से लदे पेड़ों, फूलों की बगिया दिखाइए


पहले बच्चे को गाय, बैल, सांड का फर्क सिखाओ, 

गधे, घोड़े और ख़च्चर में अंतर समझाओ


पहले बच्चों को दिखाएं कि गाय, भैंस और बकरी 

से दूध कैसे दुहा जाता है।


पहले बच्चों को कीचड़ और मिट्टी में उलट पुलट होना सिखाइये, बरसात में भीगना और गर्मियों में पसीने से तरबतर होना सिखाइये


पहले बच्चों को बुजुर्गों के पास जाना, उनसे बातें 

करना, उनके साथ खेलना और मस्ती करना सिखाइये


बड़ों से तमीज़ से बात करना और घर के काम धाम 

में माँ-पिता का सहयोग करना सिखाइये


इन सब के बगैर आप बच्चों को कोडिंग सिखाना चाह 

रहे हैं तो आपका बच्चा ATM बनेगा, समस्याओं का


व्हाइटहैट जूनियर की जल्दी क्या है? कोडिंग भी सीख लेंगे, पहले डिकोडिंग तो कर लें, अपने आस-पास की...


बचपन को ज़िंदा रखें, मरने न दें। 


हाथ जोड़कर निवेदन है।



अनंत कान्हरे

 


*जय श्री राम*


*21 दिसम्बर/इतिहास-स्मृति*      


*अनंत कान्हरे द्वारा जैक्सन का वध*


अंग्रेज शासन में कुछ अधिकारी छोटी-छोटी बात पर बड़ी सजाएं देकर समाज में आतंक फैला रहे थे। इस प्रकार वे कोलकाता, दिल्ली और लंदन में बैठे अधिकारियों की फाइल में अपने नंबर भी बढ़वाना चाहते थे। 


महाराष्ट्र में नासिक का *जिलाधीश जैक्सन* एक क्रूर अधिकारी था। उसने देशभक्तों का मुकदमा लड़ने वाले *वकील सखाराम* की जेल में *हत्या* करा दी। लोकमान्य तिलक को उनके दो लेखों पर सजा दिलवाकर *छह वर्ष* के लिए जेल भेजा तथा देशप्रेम की कविताएं लिखने के आरोप में श्री गणेश दामोदर सावरकर को *आजीवन कारावास* की सजा देकर अंदमान भिजवाया था।


इससे नाराज क्रांतिकारियों ने जैक्सन को मारने का निर्णय लिया। इसके लिए सबसे अधिक उत्साह युवा क्रांतिवीर *अनंत कान्हरे* दिखा रहा था। उसका जन्म *1891* में ग्राम *आयटीमेटे खेड़ (औरंगाबाद)* में हुआ था। वह ‘अभिनव भारत’ नामक संस्था का सदस्य था। उसके आदर्श *मदनलाल धींगरा* थे, जिन्होंने *लंदन* की भरी सभा में *कर्जन वायली* का वध किया था।


अनंत एक *दिलेर* युवक था। एक बार उसने यह दिखाने के लिए कि वह किसी भी *शारीरिक यातना* से विचलित नहीं होगा, *जलती* हुई चिमनी पर अपनी *हथेली* रख दी और फिर दो मिनट तक नहीं हटाई। इसी बीच जैक्सन का स्थानांतरण पुणे हो गया। उसके कार्यालय के साथियों ने *21 दिसम्बर, 1909* को नासिक के *‘विजयानंद सभा भवन’* में रात के समय *‘शारदा’* नामक नाटक का कार्यक्रम रखा। इसी में उसे *विदाई* दी जाने वाली थी। 


*क्रांतिकारियों* ने इसी सभा में सार्वजनिक रूप से उसे *पुरस्कार* देने का निर्णय लिया। इसके लिए *अनंत कान्हरे, विनायक नारायण देशपांडे तथा कृष्ण गोपाल कर्वे* ने जिम्मेदारी ली। *21 दिसम्बर* की शाम को *देशपांडे के घर* सब योजनाकार मिले और तीनों को लंदन से वीर सावरकर द्वारा भेजी तथा चतुर्भुज अमीन द्वारा लाई गयी *ब्राउनिंग पिस्तौलें सौंप* दी गयीं। 


पहला वार *अनंत कान्हरे* को करना था, अतः उसे एक *निकेल प्लेटेड रिवाल्वर* और दिया गया। योजना यह थी कि यदि अनंत का वार खाली गया, तो *देशपांडे हमला* करेगा। यदि वह भी असफल हुआ तो *कर्वे गोली चलाएगा।* समय से पूर्व वहां पहुंचकर तीनों ने अपनी स्थिति ले ली। जिस मार्ग से जैक्सन सभागार में आने वाला था, *अनंत* वहीं एक *कुर्सी* पर बैठ गया। 


निश्चित समय पर *जैक्सन* आया। उसके साथ कई लोग थे। आयोजकों ने आगे *बढ़कर उसका स्वागत किया।* इससे उसके आसपास कुछ भीड़ एकत्र हो गयी; पर जैसे ही वह कुछ आगे बढ़ा, *अनंत ने एक गोली चला दी। वह गोली खाली गई। दूसरी गोली जैक्सन की बांह पर लगी और वह धरती पर गिर गया। उसके गिरते ही अनंत ने पूरी पिस्तौल उस पर खाली कर दी।* 


*जैक्सन की मृत्यु वहीं घटनास्थल पर हो गयी। नासिक से विदाई समारोह में उसे दुनिया से ही विदाई दे दी गयी।* लोग कान्हरे पर टूट पड़े और उसे बहुत मारा। कुछ देर बाद पुलिस ने तीनों को गिरफ्तार कर लिया। इन पर जैक्सन की हत्या का मुकदमा चला तथा *19 अपै्रल, 1910 को ठाणे की जेल में तीनों को फांसी दे दी गयी। फांसी के समय अनंत कान्हरे की आयु केवल 18 वर्ष ही थी।*

Saturday, 26 December 2020

भास्कराचार्य


 

भास्कराचार्य

भास्कराचार्य (जन्म- 1114 ई. मृत्यु- 1179 ई.) प्राचीन भारत के सुप्रसिद्ध गणितज्ञ एवं खगोलशास्त्री थे। भास्कराचार्य द्वारा लिखित ग्रन्थों का अनुवाद अनेक विदेशी भाषाओं में किया जा चुका है। भास्कराचार्य द्वारा लिखित ग्रन्थों ने अनेक विदेशी विद्वानों को भी शोध का रास्ता दिखाया है।

 

जन्म एवं परिवार :भास्कराचार्य का जन्म 1114 ई. को विज्जडविड नामक गाँव में हुआ था जो आधुनिक पाटन के समीप था। भास्कराचार्य के पिता का नाम महेश्वराचार्य था तथा वे भी गणित के एक महान विद्वान थे। चूँकि पिता एक उच्च कोटि के गणितज्ञ थे अतः उनके सम्पर्क में रहने के कारण भास्कराचार्य की अभिरुचि भी इस विषय के अध्ययन की ओर जागृत हुई। उन्हें गणित की शिक्षा मुख्य रूप से अपने पिता से ही प्राप्त हुई। धीरे-धीरे गणित का ज्ञान प्राप्त करने की दिशा में उनकी अभिरुचि काफ़ी बढ़ती गई तथा इस विषय पर उन्होंने काफ़ी अधिक अध्ययन एवं शोध कार्य किया।भास्कराचार्य के पुत्र लक्ष्मीधर भी गणित एवं खगोल शास्त्र के महान विद्वान हुए। फिर लक्ष्मीधर के पुत्र गंगदेव भी अपने समय के एक महान विद्वान माने जाते थे। इस प्रकार हम देखते हैं कि भास्कराचार्य के पिता महेश्वराचार्य से प्रारम्भ होकर भास्कराचार्य के पोते गंगदेव तक उनकी चार पीढ़ियों ने विज्ञान की सेवा में अपना बहुमूल्य योगदान दिया। परन्तु जितनी प्रसिद्धि भास्कराचार्य को मिली उतनी अन्य लोगों को नहीं मिल पाई।

 

रचनाएँ :भास्कराचार्य की अवस्था मात्र बत्तीस वर्ष की थी तो उन्होंने अपने प्रथम ग्रन्थ की रचना की। उनकी इस कृति का नाम सिद्धान्त शिरोमणि था। उन्होंने इस ग्रन्थ की रचना चार खंडों में की थी। इन चार खण्डों के नाम हैं- 'पारी गणित', बीज गणित', 'गणिताध्याय' तथा 'गोलाध्याय'। पारी गणित नामक खंड में संख्या प्रणाली, शून्य, भिन्न, त्रैशशिक तथा क्षेत्रमिति इत्यादि विषयों पर प्रकाश डाला गया है। जबकि बीज गणित नामक खंड में धनात्मक तथा ऋणात्मक राशियों की चर्चा की गई है तथा इसमें बताया गया है कि धनात्मक तथा ऋणात्मक दोनों प्रकार की संख्याओं के वर्ग का मान धनात्मक ही होता है।

 

द्वितीय ग्रंथ :भास्कराचार्य द्वारा एक अन्य प्रमुख ग्रन्थ की रचना की गई जिसका नाम है लीलावती। कहा जाता है कि इस ग्रन्थ का नामकरण उन्होंने अपनी लाडली पुत्री लीलावती के नाम पर किया था। इस ग्रन्थ में गणित और खगोल विज्ञान सम्बन्धी विषयों पर प्रकाश डाला गया था। सन् 1163 ई. में उन्होंने करण कुतूहल नामक ग्रन्थ की रचना की। इस ग्रन्थ में भी मुख्यतः खगोल विज्ञान सम्बन्धी विषयों की चर्चा की गई है। इस ग्रन्थ में बताया गया है कि जब चन्द्रमा सूर्य को ढक लेता है तो सूर्य ग्रहण तथा जब पृथ्वी की छाया चन्द्रमा को ढक लेती है तो चन्द्र ग्रहण होता है।

 

भाषा :भास्कराचार्य द्वारा लिखित ग्रन्थों का अनुवाद अनेक विदेशी भाषाओं में किया जा चुका है। भास्कराचार्य द्वारा लिखित ग्रन्थों ने अनेक विदेशी विद्वानों को भी शोध का रास्ता दिखाया है। कई शताब्दि के बाद केपलर तथा न्यूटन जैसे यूरोपीय वैज्ञानिकों ने जो सिद्धान्त प्रस्तावित किए उन पर भास्कराचार्य द्वारा प्रस्तावित सिद्धान्तों की स्पष्ट छाप मालूम पड़ती है। ऐसा लगता है जैसे अपने सिद्धान्तों को प्रस्तुत करने के पूर्व उन्होंने अवश्य ही भास्कराचार्य के सिद्धान्तों का अध्ययन किया होगा।

 

निधन :भास्कराचार्य का देहावसान सन् 1179 ई. में 65 वर्ष की अवस्था में हुआ। हालाँकि वे अब इस संसार में नहीं हैं परन्तु अपने ग्रन्थों एवं सिद्धान्तों के रूप में वे सदैव अमर रहेंगे तथा वैज्ञानिक शोधों से जुड़े सभी लोगों का पथ-प्रदर्शन करते रहेंगे।[1]

विक्रम साराभाई

 


विक्रम साराभाई

विक्रम साराभाई (जन्म- 12 अगस्त, 1919, अहमदाबाद; मृत्यु- 30 दिसम्बर, 1971, तिरुवनंतपुरम) को भारत के 'अंतरिक्ष कार्यक्रम का जनक' माना जाता है। इनका पूरा नाम 'डॉ. विक्रम अंबालाल साराभाई' था। इन्होंने भारत को अंतरिक्ष अनुसंधान के क्षेत्र में नई ऊँचाईयों पर पहुँचाया और अंतर्राष्ट्रीय मानचित्र पर देश की उपस्थिति दर्ज करा दी। विक्रम साराभाई ने अन्य क्षेत्रों में भी समान रूप से पुरोगामी योगदान दिया। वे अंत तक वस्त्र, औषधीय, परमाणु ऊर्जा, इलेक्ट्रॉनिक्स और कई अन्य क्षेत्रों में लगातार काम करते रहे थे। डॉ. साराभाई एक रचनात्मक वैज्ञानिक, एक सफल और भविष्यदृष्टा उद्योगपति, सर्वोच्च स्तर के प्रर्वतक, एक महान संस्थान निर्माता, एक भिन्न प्रकार के शिक्षाविद, कला के पारखी, सामाजिक परिवर्तन के उद्यमी, एक अग्रणी प्रबंधन शिक्षक तथा और बहुत कुछ थे।

 

जन्म तथा शिक्षा :डॉ. साराभाई का जन्म पश्चिमी भारत में गुजरात राज्य के अहमदाबाद शहर में 1919 को हुआ था। साराभाई परिवार एक महत्त्वपूर्ण और संपन्न जैन व्यापारी परिवार था। उनके पिता अंबालाल साराभाई एक संपन्न उद्योगपति थे तथा गुजरात में कई मिलों के स्वामी थे। विक्रम साराभाई, अंबालाल और सरला देवी के आठ बच्चों में से एक थे। अपनी इंटरमीडिएट विज्ञान की परीक्षा पास करने के बाद साराभाई ने अहमदाबाद में गुजरात कॉलेज से मेट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण की। उसके बाद वे इंग्लैंड चले गए और 'केम्ब्रिज विश्वविद्यालय' के सेंट जॉन कॉलेज में भर्ती हुए। उन्होंने केम्ब्रिज से 1940 में प्राकृतिक विज्ञान में ट्राइपॉस हासिल किया। 'द्वितीय विश्वयुद्ध' के बढ़ने के साथ साराभाई भारत लौट आये और बेंगलोर के 'भारतीय विज्ञान संस्थान' में भर्ती हुए तथा नोबेल पुरस्कार विजेता सी. वी. रामन के मार्गदर्शन में ब्रह्मांडीय किरणों में अनुसंधान शुरू किया। विश्वयुद्ध के बाद 1945 में वे केम्ब्रिज लौटे और 1947 में उन्हें उष्णकटिबंधीय अक्षांश में कॉस्मिक किरणों की खोज शीर्षक वाले अपने शोध पर पी.एच.डी की डिग्री से सम्मानित किया गया।

 

भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम के जनक :साराभाई को 'भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम का जनक' माना जाता है। वे महान संस्थान निर्माता थे और उन्होंने विविध क्षेत्रों में अनेक संस्थाओं की स्थापना की या स्थापना में मदद की थी। अहमदाबाद में 'भौतिक अनुसंधान प्रयोगशाला' की स्थापना में उन्होंने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, केम्ब्रिज से 1947 में आज़ाद भारत में वापसी के बाद उन्होंने अपने परिवार और मित्रों द्वारा नियंत्रित धर्मार्थ न्यासों को अपने निवास के पास अहमदाबाद में अनुसंधान संस्थान को धन देने के लिए राज़ी किया। इस प्रकार 11 नवम्बर, 1947 को अहमदाबाद में विक्रम साराभाई ने 'भौतिक अनुसंधान प्रयोगशाला' (पीआरएल) की स्थापना की। उस समय उनकी उम्र केवल 28 वर्ष थी। साराभाई संस्थानों के निर्माता और संवर्धक थे और पीआरएल इस दिशा में पहला क़दम था। विक्रम साराभाई ने 1966-1971 तक पीआरएल की सेवा की।

 

संस्थानों की स्थापना :'परमाणु ऊर्जा आयोग' के अध्यक्ष पद पर भी विक्रम साराभाई रह चुके थे। उन्होंने अहमदाबाद में स्थित अन्य उद्योगपतियों के साथ मिल कर 'इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ़ मैनेजमेंट', अहमदाबाद की स्थापना में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। डॉ. साराभाई द्वारा स्थापित कतिपय सुविख्यात संस्थान इस प्रकार हैं-भौतिक अनुसंधान प्रयोगशाला (पीआरएल), अहमदाबादइंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ़ मैनेजमेंट (आईआईएम), अहमदाबादकम्यूनिटी साइंस सेंटर, अहमदाबाददर्पण अकाडेमी फ़ॉर परफ़ार्मिंग आर्ट्स, अहमदाबाद[1]विक्रम साराभाई अंतरिक्ष केंद्र, तिरुवनंतपुरमस्पेस अप्लीकेशन्स सेंटर, अहमदाबाद[2]फ़ास्टर ब्रीडर टेस्ट रिएक्टर (एफ़बीटीआर), कल्पकमवेरिएबल एनर्जी साइक्लोट्रॉन प्रॉजेक्ट, कोलकाताइलेक्ट्रॉनिक्स कॉर्पोरेशन ऑफ़ इंडिया लिमिटेड(ईसीआईएल), हैदराबादयूरेनियम कार्पोरेशन ऑफ़ इंडिया लिमिटेड(यूसीआईएल), जादूगुडा, बिहार

 

'इसरो' की स्थापना :'भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन' (इसरो) की स्थापना उनकी महान उपलब्धियों में एक थी। रूसी स्पुतनिक के प्रमोचन के बाद उन्होंने भारत जैसे विकासशील देश के लिए अंतरिक्ष कार्यक्रम के महत्व के बारे में सरकार को राज़ी किया। डॉ. साराभाई ने अपने उद्धरण में अंतरिक्ष कार्यक्रम के महत्व पर ज़ोर दिया था-ऐसे कुछ लोग हैं, जो विकासशील राष्ट्रों में अंतरिक्ष गतिविधियों की प्रासंगिकता पर सवाल उठाते हैं। हमारे सामने उद्देश्य की कोई अस्पष्टता नहीं है। हम चंद्रमा या ग्रहों की गवेषणा या मानव सहित अंतरिक्ष-उड़ानों में आर्थिक रूप से उन्नत राष्ट्रों के साथ प्रतिस्पर्धा की कोई कल्पना नहीं कर रहें हैं, लेकिन हम आश्वस्त हैं कि अगर हमें राष्ट्रीय स्तर पर और राष्ट्रों के समुदाय में कोई सार्थक भूमिका निभानी है, तो हमें मानव और समाज की वास्तविक समस्याओं के लिए उन्नत प्रौद्योगिकियों को लागू करने में किसी से पीछे नहीं रहना चाहिए।

 

परमाणु विज्ञान कार्यक्रम :भारतीय परमाणु विज्ञान कार्यक्रम के जनक के रूप में व्यापक रूप से मान्यता प्राप्त डॉ. होमी जहाँगीर भाभा ने भारत में प्रथम राकेट प्रमोचन केंद्र की स्थापना में डॉ. साराभाई का समर्थन किया। यह केंद्र मुख्यतः भूमध्य रेखा से उसकी निकटता की दृष्टि से अरब महासागर के तट पर, तिरुवनंतपुरम के निकट थुम्बा में स्थापित किया गया। अवसंरचना, कार्मिक, संचार लिंक और प्रमोचन मंचों की स्थापना के उल्लेखनीय प्रयासों के बाद 21 नवम्बर, 1963 को सोडियम वाष्प नीतभार सहित उद्घाटन उड़ान प्रमोचित की गयी।

 

अन्य योगदान :डॉ. साराभाई विज्ञान की शिक्षा में अत्यधिक दिलचस्पी रखते थे। इसीलिए उन्होंने 1966 में सामुदायिक विज्ञान केंद्र की स्थापना अहमदाबाद में की। आज यह केंद्र 'विक्रम साराभाई सामुदायिक विज्ञान केंद्र' कहलाता है। 1966 में नासा के साथ डॉ. साराभाई के संवाद के परिणामस्वरूप जुलाई, 1975 से जुलाई, 1976 के दौरान 'उपग्रह अनुदेशात्मक दूरदर्शन परीक्षण' (एसआईटीई) का प्रमोचन किया गया।[3] डॉ. साराभाई ने भारतीय उपग्रहों के संविरचन और प्रमोचन के लिए परियोजनाएँ प्रारंभ कीं। इसके परिणामस्वरूप प्रथम भारतीय उपग्रह आर्यभट्ट, रूसी कॉस्मोड्रोम से 1975 में कक्षा में स्थापित किया गया।

 

मृत्यु :अंतरिक्ष की दुनिया में भारत को बुलन्दियों पर पहुँचाने वाले और विज्ञान जगत में देश का परचम लहराने वाले इस महान वैज्ञानिक डॉ. विक्रम साराभाई की मृत्यु 30 दिसम्बर, 1971 को कोवलम, तिरुवनंतपुरम, केरल में हुई।

 

पुरस्कार :शांतिस्वरूप भटनागर पुरस्कार (1962)पद्मभूषण (1966)पद्मविभूषण, मरणोपरांत (1972)

 

महत्त्वपूर्ण पद :भौतिक विज्ञान अनुभाग, भारतीय विज्ञान कांग्रेस के अध्यक्ष ([1962)आई.ए.ई.ए., वेरिना के महा सम्मलेनाध्यक्ष (1970)उपाध्यक्ष, 'परमाणु ऊर्जा का शांतिपूर्ण उपयोग' पर चौथा संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन (1971)

 

सम्मान :रॉकेटों के लिए ठोस और द्रव नोदकों में विशेषज्ञता रखने वाले अनुसंधान संस्थान, विक्रम साराभाई अंतरिक्ष केंद्र (वीएसएससी) का नामकरण उनकी स्मृति में किया गया, जो केरल राज्य की राजधानी तिरूवनंतपुरम में स्थित है। 1974 में सिडनी में अंतर्राष्ट्रीय खगोलीय संघ ने निर्णय लिया कि सी ऑफ़ सेरिनिटी में स्थित 'चंद्रमा क्रेटर बेसेल' (बीईएसएसईएल) डॉ. साराभाई क्रेटर के रूप में जाना जाएगा।

 

ज्योतिर्विद आर्यभट्ट

 


आर्यभट्ट

प्राचीन काल के ज्योतिर्विदों में आर्यभट्ट, वराहमिहिर, ब्रह्मगुप्त, आर्यभट्ट द्वितीय, भास्कराचार्य, कमलाकर जैसे प्रसिद्ध विद्वानों का इस क्षेत्र में अमूल्य योगदान है। इन सभी में आर्यभट्ट सर्वाधिक प्रख्यात हैं। वे गुप्त काल के प्रमुख ज्योतिर्विद थे। आर्यभट्ट का जन्म ई.स. 476 में कुसुमपुर (पटना) में हुआ था। नालन्दा विश्वविद्यालय में उन्होंने शिक्षा प्राप्त की थी। 23 वर्ष की आयु में आर्यभट्ट ने 'आर्यभट्टीय ग्रंथ' लिखा था। उनके इस ग्रंथ को चारों ओर से स्वीकृति मिली थी, जिससे प्रभावित होकर राजा बुद्धगुप्त ने आर्यभट्ट को नालन्दा विश्वविद्यालय का प्रमुख बना दिया।

 

आर्यभट्ट का योगदान :पृथ्वी गोल है और अपनी धुरी पर घूमती है, जिसके कारण रात और दिन होते हैं, इस सिद्धांत को सभी जानते हैं, पर इस वास्तविकता से बहुत लोग परिचित होगें कि 'निकोलस कॉपरनिकस' के बहुत पहले ही आर्यभट्ट ने यह खोज कर ली थी कि पृथ्वी गोल है और उसकी परिधि अनुमानत: 24835 मील है। राहु नामक ग्रह सूर्य और चन्द्रमा को निगल जाता है, जिससे सूर्य और चन्द्र ग्रहण होते हैं, हिन्दू धर्म की इस मान्यता को आर्यभट्ट ने ग़लत सिद्ध किया। चंद्र ग्रहण में चन्द्रमा और सूर्य के बीच पृथ्वी के आ जाने से और उसकी छाया चंद्रमा पर पड़ने से 'चंद्रग्रहण' होता है, यह कारण उन्होंने खोज निकाला। आर्यभट्ट को यह भी पता था कि चन्द्रमा और दूसरे ग्रह स्वयं प्रकाशमान नहीं हैं, बल्कि सूर्य की किरणें उसमें प्रतिबिंबित होती हैं और यह भी कि पृथ्वी तथा अन्य ग्रह सूर्य के चारों ओर वृत्ताकार घूमते हैं। उन्होंने यह भी बताया कि 'चंद्रमा' काला है और वह सूर्य के प्रकाश से ही प्रकाशित होता है। आर्यभट्ट ने यह सिद्ध किया कि वर्ष में 366 दिन नहीं वरन 365.2951 दिन होते हैं। आर्यभट्ट के 'बॉलिस सिद्धांत' (सूर्य चंद्रमा ग्रहण के सिद्धांत) 'रोमक सिद्धांत' और सूर्य सिद्धांत विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण हैं। आर्यभट्ट द्वारा निश्चित किया 'वर्षमान' 'टॉलमी' की तुलना में अधिक वैज्ञानिक है।

 

गणित में योगदान :विश्व गणित के इतिहास में भी आर्यभट्ट का नाम सुप्रसिद्ध है। खगोलशास्त्री होने के साथ साथ गणित के क्षेत्र में भी उनका योगदान बहुमूल्य है। बीजगणित में भी सबसे पुराना ग्रंथ आर्यभट्ट का है। उन्होंने सबसे पहले 'पाई' (p) की कीमत निश्चित की और उन्होंने ही सबसे पहले 'साइन' (SINE) के 'कोष्टक' दिए। गणित के जटिल प्रश्नों को सरलता से हल करने के लिए उन्होंने ही समीकरणों का आविष्कार किया, जो पूरे विश्व में प्रख्यात हुआ। एक के बाद ग्यारह शून्य जैसी संख्याओं को बोलने के लिए उन्होंने नई पद्ध्ति का आविष्कार किया। बीजगणित में उन्होंने कई संशोधन संवर्धन किए और गणित ज्योतिष का 'आर्य सिद्धांत' प्रचलित किया।वृद्धावस्था में आर्यभट्ट ने 'आर्यभट्ट सिद्धांत' नामक ग्रंथ की रचना की। उनके 'दशगीति सूत्र' ग्रंथों क ओ प्रा. कर्ने ने 'आर्यभट्टीय' नाम से प्रकाशित किया। आर्यभट्टीय संपूर्ण ग्रंथ है। इस ग्रंथ में रेखागणित, वर्गमूल, घनमूल, जैसी गणित की कई बातों के अलावा खगोल शास्त्र की गणनाएँ और अंतरिक्ष से संबंधित बातों का भी समावेश है। आज भी 'हिन्दू पंचांग' तैयार करने में इस ग्रंथ की मदद ली जाती है। आर्यभट्ट के बाद इसी नाम का एक अन्य खगोलशास्त्री हुआ जिसका नाम 'लघु आर्यभट्ट' था।

 

भारत का प्रथम उपग्रह :खगोल और गणितशास्त्र, इन दोनों क्षेत्र में उनके महत्त्वपूर्ण योगदान के स्मरणार्थ भारत के प्रथम उपग्रह का नाम आर्यभट्ट रखा गया था।

 

तथ्य :आर्यभट्टीयनामक ग्रंथ की रचना करने वाले आर्यभट्ट अपने समय के सबसे बड़े गणितज्ञ थे।आर्यभट्ट ने दशमलव प्रणाली का विकास किया।आर्यभट्ट के प्रयासों के द्वारा ही खगोल विज्ञान को गणित से अलग किया जा सका।आर्यभट्ट ऐसे प्रथम नक्षत्र वैज्ञानिक थे, जिन्होंने यह बताया कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती हुई सूर्य के चक्कर लगाती है। इन्होनें सूर्यग्रहण एवं चन्द्रग्रहण होने वास्तविक कारण पर प्रकाश डाला।आर्यभट्ट ने सूर्य सिद्धान्त लिखा।आर्यभट्ट के सिद्धान्त पर 'भास्कर प्रथम' ने टीका लिखी। भास्कर के तीन अन्य महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है- महाभास्कर्य, लघुभास्कर्य एवं भाष्य।ब्रह्मगुप्त ने ब्रह्म-सिद्धान्त की रचना कर बताया कि प्रकृति के नियम के अनुसार समस्त वस्तुएं पृथ्वी पर गिरती हैं, क्योंकि पृथ्वी अपने स्वभाव से ही सभी वस्तुओं को अपनी ओर आकर्षित करती है। यह न्यूटन के सिद्वान्त के पूर्व की गयी कल्पना है।आर्यभट्ट, वराहमिहिर एवं ब्रह्मगुप्त को संसार के सर्वप्रथम नक्षत्र-वैज्ञानिक और गणितज्ञ कहा गया है।

डॉ राजेन्द्र प्रसाद

 

राजेन्द्र प्रसाद

डॉ राजेन्द्र प्रसाद (अंग्रेज़ी: Dr. Rajendra Prasad, जन्म- 3 दिसम्बर, 1884, जीरादेयू, बिहार, मृत्यु- 28 फ़रवरी, 1963, सदाकत आश्रम, पटना) भारत के प्रथम राष्ट्रपति थे। राजेन्द्र प्रसाद बेहद प्रतिभाशाली और विद्वान व्यक्ति थे। राजेन्द्र प्रसाद, भारत के एकमात्र राष्ट्रपति थे जिन्होंने दो कार्यकालों तक राष्ट्रपति पद पर कार्य किया।

 

जन्म :बिहार प्रान्त के एक छोटे से गाँव जीरादेयू में 3 दिसम्बर, 1884 में राजेन्द्र प्रसाद का जन्म हुआ था। एक बड़े संयुक्त परिवार के राजेन्द्र प्रसाद सबसे छोटे सदस्य थे, इसलिए वह सबके दुलारे थे। राजेन्द्र प्रसाद के परिवार के सदस्यों के सम्बन्ध गहरे और मृदु थे। राजेन्द्र प्रसाद को अपनी माता और बड़े भाई महेन्द्र प्रसाद से बहुत स्नेह था। जीरादेयू गाँव की आबादी मिश्रित थी। मगर सब लोग इकट्ठे रहते थे। राजेन्द्र प्रसाद की सबसे पहली याद अपने हिन्दू और मुसलमान दोस्तों के साथ 'चिक्का और कबड्डी' खेलने की है। किशोरावस्था में उन्हें होली के त्योहार का इंतज़ार रहता था और उसमें उनके मुसलमान दोस्त भी शामिल रहते थे और मुहर्रम पर हिन्दू ताज़िये निकालते थे। 'राजेन बाबू' (राजेन्द्र प्रसाद) को गाँव के मठ में रामायण सुनना और स्थानीय रामलीला देखना बड़ा अच्छा लगता था। घर का वातावरण भी ईश्वर पर पूर्ण विश्वास का था। राजेन्द्र प्रसाद की माता बहुत बार उन्हें रामायण से कहानियाँ सुनातीं और भजन भी गाती थी। उनके चरित्र की दृढ़ता और उदार दृष्टिकोण की आधारशिला बचपन में ही रखी गई थी।

 

विवाह :गाँव का जीवन पुरानी परम्पराओं से भरपूर था। इनमें से एक रिवाज था- बाल विवाह और परम्परा के अनुसार राजेन्द्र प्रसाद का विवाह भी केवल बारह वर्ष की आयु में हो गया था। यह एक विस्तृत अनुष्ठान था जिसमें वधू के घर पहुँचने में घोड़ों, बैलगाड़ियों और हाथी के जुलूस को दो दिन लगे थे। वर एक चांदी की पालकी में, जिसे चार आदमी उठाते थे, सजे-धजे बैठे थे। रास्ते में उन्हें एक नदी भी पार करनी थी। बरातियों को नदी पार कराने के लिए नाव का इस्तेमाल किया गया। घोड़े और बैलों ने तैरकर नदी पार की, मगर इकलौते हाथी ने पानी में उतरने से इंकार कर दिया। परिणाम यह हुआ कि हाथी को पीछे ही छोड़ना पड़ा और राजेन्द्र प्रसाद के पिता जी 'महादेव सहाय' को इसका बड़ा दुख हुआ। अपने गंतव्य स्थान पर पहुँचने से दो मील पहले उन्होंने किसी अन्य विवाह से लौटते दो हाथी देखे। उनसे लेनदेन तय हुआ और परम्परा के अनुसार हाथी फिर विवाह के जुलूस में शामिल हो गए। किसी तरह से यह जुलूस मध्य रात्रि को वधू के घर पहुँचा। लम्बी यात्रा और गर्मी से सब बेहाल हो रहे थे और वर तो पालकी में ही सो गये थे। बड़ी कठिनाई से उन्हें विवाह की रस्म के लिए उठाया गया। वधू, राजवंशी देवी, उन दिनों के रिवाज के अनुसार पर्दे में ही रहती थी। छुट्टियों में घर जाने पर अपनी पत्नी को देखने या उससे बोलने का राजेन्द्र प्रसाद को बहुत ही कम अवसर मिलता था। राजेन्द्र प्रसाद बाद में राष्ट्रीय आंदोलन में शामिल हो गए। तब वह पत्नी से और भी कम मिल पाते थे। वास्तव में विवाह के प्रथम पचास वर्षों में शायद पति-पत्नी पचास महीने ही साथ-साथ रहे होंगे। राजेन्द्र प्रसाद अपना सारा समय काम में बिताते और पत्नी बच्चों के साथ जीरादेयू गाँव में परिवार के अन्य सदस्यों के साथ रहती थीं।

 

मातृभूमि के लिए समर्पित :राजेन्द्र प्रसाद प्रतिभाशाली और विद्वान थे और कलकत्ता के एक योग्य वकील के यहाँ काम सीख रहे थे। राजेन्द्र प्रसाद का भविष्य एक सुंदर सपने की तरह था। राजेन्द्र प्रसाद का परिवार उनसे कई आशायें लगाये बैठा था। वास्तव में राजेन्द्र प्रसाद के परिवार को उन पर गर्व था। लेकिन राजेन्द्र प्रसाद का मन इन सब में नहीं था। राजेन्द्र प्रसाद केवल धन और सुविधायें पाने के लिए आगे पढ़ना नहीं चाहते थे। एकाएक राजेन्द्र प्रसाद की दृष्टि में इन चीज़ों का कोई मूल्य नहीं रह गया था। राष्ट्रीय नेता गोखले के शब्द राजेन्द्र प्रसाद के कानों में बार-बार गूँज उठते थे।राजेन्द्र प्रसाद की मातृभूमि विदेशी शासन में जकड़ी हुई थी। राजेन्द्र प्रसाद उसकी पुकार को कैसे अनसुनी कर सकते थे। लेकिन राजेन्द्र प्रसाद यह भी जानते थे कि एक तरफ देश और दूसरी ओर परिवार की निष्ठा उन्हें भिन्न-भिन्न दिशाओं में खींच रही थी। राजेन्द्र प्रसाद का परिवार यह नहीं चाहता था कि वह अपना कार्य छोड़कर 'राष्ट्रीय आंदोलन' में भाग लें क्योंकि उसके लिए पूरे समर्पण की आवश्यकता होती है। राजेन्द्र प्रसाद को अपना रास्ता स्वयं चुनना पड़ेगा। यह उलझन मानों उनकी आत्मा को झकझोर रही थी।राजेन्द्र प्रसाद ने रात ख़त्म होते-होते मन ही मन कुछ तय कर लिया था। राजेन्द्र प्रसाद स्वार्थी बनकर अपने परिवार को सम्भालने का पूरा भार अपने बड़े भाई पर नहीं डाल सकते थे। राजेन्द्र प्रसाद के पिता का देहान्त हो चुका था। राजेन्द्र प्रसाद के बड़े भाई ने पिता का स्थान लेकर उनका मार्गदर्शन किया था और उच्च आदर्शों की प्रेरणा दी थी। राजेन्द्र प्रसाद उन्हें अकेला कैसे छोड़ सकते थे? अगले दिन ही उन्होंने अपने भाई को पत्र लिखा, मैंने सदा आपका कहना माना है और यदि ईश्वर ने चाहा तो सदा ऐसा ही होगा। दिल में यह शपथ लेते हुए कि अपने परिवार को और दु:ख नहीं देंगे उन्होंने लिखा, मैं जितना कर सकता हूँ, करूँगा और सब को प्रसन्न देख कर प्रसन्नता का अनुभव करूँगा। लेकिन उनके दिल में उथल-पुथल मची रही। एक दिन वह अपनी आत्मा की पुकार सुनेंगे और स्वयं को पूर्णतया अपनी मातृभूमि के लिए समर्पित कर देंगे। यह युवक राजेन्द्र थे जो चार दशक पश्चात 'स्वतंत्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति' बने।

 

इंग्लैण्ड जाने का सपना :बहुत बड़े परिवार में रहने के कारण शुरू से ही राजेन्द्र प्रसाद में अन्य सदस्यों का ध्यान रखने और निस्स्वार्थता का गुण आ गया था। छात्रकाल के दौरान उनके मन में आई.सी.एस. की परीक्षा देने के लिए इंग्लैण्ड जाने की बड़ी इच्छा थी। लेकिन उन्हें भय था कि परिवार के लोग इतनी दूर जाने की अनुमति कभी नहीं देंगे। इसलिए उन्होंने बहुत ही गुप्त रूप से जहाज़ में इंग्लैंण्ड जाने के लिए सीट का आरक्षण करवाया और अन्य सब प्रबन्ध किए। यहाँ तक की इंग्लैंण्ड में पहनने के लिए दो सूट भी सिलवा लिए। लेकिन जिसका उन्हें भय था वही हुआ। उनके पिताजी ने इस प्रस्ताव का बहुत ज़ोर से विरोध किया। राजेन्द्र प्रसाद ने बहुत अनिच्छा से इंग्लैंण्ड जाने का विचार छोड़ दिया। अन्य लोगों के विचारों के प्रति सम्मान का गुण पूरा जीवन राजेन्द्र प्रसाद के साथ रहा। वास्तव में राजेन्द्र प्रसाद के बचपन में विकसित सारे गुण जीवनभर उनके साथ रहे और उन्हें कठिनाइयों का सामना करने का साहस देते रहे।

 

बचपन से ही परिश्रमी :स्कूल के दिन परिश्रम और मौज-मस्ती का मिश्रण थे। उन दिनों में यह परम्परा थी कि शिक्षा का आरंभ फ़ारसी की शिक्षा से किया जाए। राजेन्द्र प्रसाद पाँच या छह वर्ष के रहे होंगे जब उन्हें और उनके दो चचेरे भाइयों को एक मौलवी साहब पढ़ाने के लिए आने लगे। शिक्षा आरंभ करने वाले दिन पैसे और मिठाई बांटी जाती है। लड़कों ने अपने अच्छे स्वभाव वाले मौलवी साहब के साथ शैतानियाँ भी की मगर मेहनत भी कस कर की। वे सुबह बड़ी जल्दी उठ कर कक्षा के कमरे में पढ़ने के लिए बैठ जाते। यह सिलसिला काफ़ी देर तक चलता और बीच में उन्हें खाने और आराम करने की छुट्टी मिलती। वास्तव में यह कल्पना भी नहीं की जा सकती थी कि इतने छोटे बच्चे बहुत देर तक ध्यान लगा कर पढ़ाई कर सकें। ये विशेष गुण जीवनपर्यन्त राजेन्द्र प्रसाद में रहे और इन्हीं ने उन्हें विशिष्टता भी दिलाई।

 

विश्वविद्यालय की शिक्षा :राजेन्द्र प्रसाद अपने नाज़ुक स्वास्थ्य के बावज़ूद भी एक गंभीर एवं प्रतिभाशाली छात्र थे और स्कूल व कॉलेज दोनों में ही उनका परिणाम बहुत ही अच्छा रहा। कलकत्ता विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षा में राजेन्द्र प्रसाद प्रथम रहे और उन्हें तीस रुपये महीने की छात्रवृत्ति भी मिली। उन दिनों में तीस रुपये बहुत होते थे। लेकिन सबसे बड़ी बात थी कि पहली बार बिहार का एक छात्र परीक्षा में प्रथम आया था। उनके परिवार और उनके लिए यह एक गर्व का क्षण था। सन 1902 ई. में राजेन्द्र प्रसाद ने कलकत्ता के प्रेसीडेंसी कॉलेज में प्रवेश लिया। यह सरल स्वभाव और निष्कपट युवक बिहार की सीमा से पहली बार बाहर निकल कर कलकत्ता जैसे बड़े शहर में आया था। अपनी कक्षा में जाने पर वह छात्रों को ताकता रह गया। सबके सिर नंगे थे और वह सब पश्चिमी वेषभूषा की पतलून और कमीज़ पहने थे। उन्होंने सोचा ये सब एंग्लो-इंडियन हैं लेकिन जब हाज़िरी बोली गई तो उन्हें यह जानकर आश्चर्य हुआ कि सबके नाम हिन्दुस्तानी थे।राजेन्द्र प्रसाद का नाम हाज़िरी के समय नहीं पुकारा गया तो वह बहुत हिम्मत करके खड़े हुए और प्राध्यापक को बताया। प्राध्यापक उनके देहाती कपड़ों को घूरता ही रहा। वह सदा की तरह कुर्ता-पाजामा और टोपी पहने थे। 'ठहरो। मैंने अभी स्कूल के लड़कों की हाज़िरी नहीं ली,' प्राध्यापक ने तीखे स्वर में कहा। वह शायद उन्हें एक स्कूल का लड़का समझ रहा था।राजेन्द्र प्रसाद ने हठ किया कि वह प्रेसीडेंसी कॉलेज के छात्र हैं और अपना नाम भी बताया। अब कक्षा के सब छात्र उन्हें घूरने लगे क्योंकि यह नाम तो उन दिनों सबकी ज़ुबान पर था। उस वर्ष राजेन्द्र प्रसाद नाम का लड़का विश्वविद्यालय में प्रथम आया था। ग़लती को तुरन्त सुधारा गया और इस तरह राजेन्द्र प्रसाद का कॉलेज जीवन आरम्भ हुआ।

 

आत्मविश्वासी राजेन्द्र :वर्ष के आख़िर में एक बार फिर ग़लती हुई। जब प्रिंसिपल ने एफ.ए. में उत्तीर्ण छात्रों के नाम लिए तो राजेन्द्र प्रसाद का नाम सूची में नहीं था। राजेन्द्र प्रसाद को अपने कानों पर विश्वास नहीं आया। क्योंकि इस परीक्षा के लिए उन्होंने बहुत ही परिश्रम किया था। आख़िर वह खड़े हुए और सम्भावित ग़लती की ओर संकेत किया।प्रिंसिपल ने तुरन्त उत्तर दिया कि वह फ़ेल हो गए होंगे। उन्हें इस मामले में तर्क नहीं करना चाहिए। 'लेकिन, लेकिन सर', राजेन्द्र प्रसाद ने हकलाकर, घबराते हुए कहा। इस समय उनका हृदय धक-धक कर रहा था। 'पाँच रुपया ज़ुर्माना' क्रोधित प्रिंसिपल ने कहा। राजेन्द्र प्रसाद ने साहस कर फिर बोलना चाहा। 'दस रुपया ज़ुर्माना', लाल-पीला होते हुए प्रिंसिपल चिल्लाया।राजेन्द्र प्रसाद बहुत घबरा गए। अगले कुछ क्षणों में ज़ुर्माना बढ़कर 25 रुपये तक पहुँच गया। एकाएक हैड क्लर्क ने उन्हें पीछे से बैठ जाने का संकेत किया। एक ग़लती हो गई थी। पता चला कि वास्तव में राजेन्द्र प्रसाद कक्षा में प्रथम आए थे। उनके नम्बर उनकी प्रवेश परीक्षा से भी इस बार बहुत अधिक थे। प्रिंसिपल नया था। इसलिए उसने इस प्रतिभाशाली छात्र को नहीं पहचाना था। राजेन्द्र प्रसाद की छात्रवृत्ति दो वर्ष के लिए बढ़ाकर 50 रुपया प्रति मास कर दी गई। उसके बाद स्नातक की परीक्षा में भी उन्हें विशिष्ट स्थान मिला। यद्यपि राजेन्द्र प्रसाद सदा विनम्र बने रहे मगर उन्होंने यह महत्त्वपूर्ण पाठ पढ़ लिया था कि अपने संकोच को दूर कर स्वयं में आत्मविश्वास पैदा करना ही होगा। अपने कॉलेज के दिनों में राजेन्द्र प्रसाद को सदा योग्य अध्यापकों का समर्थन मिला, जिन्होंने अपने छात्रों को आगे बढ़ने की प्रेरणा एवं उच्च आचार-विचार की शिक्षा दी।

 

स्वदेशी आंदोलन :राजेन्द्र प्रसाद भी नये आंदोलन की ओर आकर्षित हुए। अब पहली बार राजेन्द्र प्रसाद ने पुस्तकों की तरफ़ कम ध्यान देना शुरू किया। स्वदेशी और बहिष्कार आंदोलन ने राजेन्द्र प्रसाद के छात्रालय के छात्रों को बहुत प्रभावित किया। उन्होंने सब विदेशी कपड़ों को जलाने की क़सम खाई। एक दिन सबके बक्से खोल कर विदेशी कपड़े निकाले गये और उनकी होली जला दी गई। जब राजेन्द्र प्रसाद का बक्सा खोला गया तो एक भी कपड़ा विदेशी नहीं निकला। यह उनके देहाती पालन-पोषण के कारण नहीं था। बल्कि स्वतः ही उनका झुकाव देशी चीज़ों की ओर था। गोपाल कृष्ण गोखले ने सन् 1905 में 'सर्वेन्ट्स ऑफ़ इंडिया सोसाइटी' आरम्भ की थी। उनका ध्येय था ऐसे राष्ट्रीय स्वयं सेवक तैयार करना जो भारत में संवैधानिक सुधार करें। इस योग्य युवा छात्र से वह बहुत प्रभावित थे और उन्होंने राजेन्द्र प्रसाद को इस सोसाइटी में शामिल होने के लिये प्रेरित किया। लेकिन परिवार की ओर से अपने कर्तव्य के कारण राजेन्द्र प्रसाद ने गोखले की पुकार को उस समय अनसुना कर दिया। लेकिन वह याद करते हैं,- 'मैं बहुत दुखी था।' और जीवन में पहली बार बी. एल. की परीक्षा में कठिनाई से पास हुए थे।

 

क़ानून में मास्टर डिग्री :वह अब वक़ालत की दहलीज पर खड़े थे। उन्होंने जल्दी ही मुक़दमों को अच्छी प्रकार और ईमानदारी से करने के लिये ख्याति पा ली। सन् 1915 में क़ानून में मास्टर की डिग्री में विष्टिता पाने के लिए राजेन्द्र प्रसाद को सोने का मेडल मिला। इसके बाद उन्होंने क़ानून में डॉक्टरेट भी कर ली। अब वह डा. राजेन्द्र प्रसाद हो गये। इन वर्षों में राजेन्द्र प्रसाद कई प्रसिद्ध वक़ीलों, विद्वानों और लेखकों से मिले। राजेन्द्र प्रसाद भारतीय कांग्रेस कमेटी के सदस्य भी बन गये। राजेन्द्र प्रसाद के मस्तिष्क में राष्ट्रीयता ने जड़े जमा ली थी।

 

चम्पारन और ब्रिटिश दमन :ब्रिटिश शासक के अन्याय के प्रति हमारा दब्बूपन अब विरोध में बदल रहा था। सन् 1914 में प्रथम विश्व युद्ध आरम्भ होने पर लोगों के लिये नई कठिनाइयाँ उत्पन्न हो गई। जैसे- भारी कर, खाद्य पदार्थों की कमी कीमतों का बढ़ना और बेरोज़गारी। सुधार का कोई संकेत नहीं मिल रहा था। जब कलकत्ता में सन् 1917 के दिसम्बर माह में 'ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी' का अधिवेशन हुआ तो भारत में उथल-पुथल मची हुई थी। राजेन्द्र प्रसाद भी इस अधिवेशन में शामिल हुए। उनके साथ ही एक सांवले रंग का दुबला-पतला आदमी बैठा था मगर उसकी आँखें बड़ी तेज़ और चमकीली थी। राजेन्द्र प्रसाद ने सुना था कि वह अफ़्रीका से आया है लेकिन अपने स्वाभाविक संकोच के कारण वह उससे बातचीत न कर सके। यह व्यक्ति और कोई नहीं महात्मा गांधी ही थे। वह अभी-अभी दक्षिण अफ़्रीका में सरकारी दमन के विरुद्ध संघर्ष करके भारत लौटे थे। राजेन्द्र प्रसाद को उस समय पता नहीं था कि वह सांवला पैनी आँखों वाला व्यक्ति ही उनके भविष्य के जीवन को आकार देगा।गांधी जी ने अपना प्रथम प्रयोग बिहार के चम्पारन ज़िले में किया जहाँ कृषकों की दशा बहुत ही दयनीय थी। ब्रिटिश लोगों ने बहुत सारी धरती पर नील की खेती आरम्भ कर दी थी जो उनके लिये लाभदायक थी। भूखे, नंगे, कृषक किरायेदार को नील उगाने के लिये ज़बरदस्ती की जाती। यदि वे उनकी आज्ञा नहीं मानते तो उन पर जुर्माना किया जाता और क्रूरता से यातनाएँ दी जाती एवं उनके खेत और घरों का नष्ट कर दिया जाता था। जब भी झगड़ा हाई कोर्ट में पेश हुआ, तब-तब वास्तव में राजेन्द्र प्रसाद ने सदा बिना फ़ीस लिये इन कृषकों का प्रतिनिधित्व किया। लेकिन फिर भी वह निरन्तर जानवरों जैसी स्थिति में रहते आ रहे थे। गांधीजी को चम्पारन में हो रहे दमन पर विश्वास नहीं हुआ और वास्तविकता का पता लगाने वह कलकत्ता अधिवेशन के बाद स्वयं बिहार गये। महात्मा गांधी के साथ चम्पारन का एक कृषक नेता था। जो पहले उन्हें राजेन्द्र प्रसाद जी के घर पटना में ले आया। घर में केवल नौकर था। गांधीजी को एक किसान मुवक्किल समझकर उसने बड़ी रूखाई से उन्हें बाहर बैठने के लिये कहा। कुछ समय बाद गांधी जी अपनी चम्पारन की यात्रा पर चल दिये। नील कर साहब और यहाँ के सरकारी अधिकारियों को डर था कि गांधीजी के आने से गड़बड़ न हो जाये। इसलिये उन्हें सरकारी आदेश दिया गया कि तत्काल ज़िला छोड़ कर चलें जायें। गांधीजी ने वहाँ से जाने से इंकार कर दिया और उत्तर दिया कि वह आंदोलन करने नहीं आये। केवल पूछताछ से जानना चाहते हैं। बहुत बड़ी संख्या में पीड़ित किसान उनके पास अपने दुख की कहानियां लेकर आने लगे। अब उन्हें कचहरी में पेश होने के लिये कहा गया।

 

गांधी जी से भेंट :बाबू राजेन्द्र प्रसाद की ख़्याति कि वह बहुत समर्पित कार्यकर्ता हैं, गांधी जी के पास पहुँच चुकी थीं। गांधी जी ने राजेन्द्र प्रसाद को चम्पारन की स्थिति बताते हुए एक तार भेजा और कहा कि वह तुरन्त कुछ स्वयंसेवकों को साथ लेकर वहाँ आ जायें। बाबू राजेन्द्र प्रसाद का गांधी जी के साथ यह पहला सम्पर्क था। वह उनके अपने जीवन में ही नहीं बल्कि भारत की राष्ट्रीयता के इतिहास में भी, एक नया मोड़ था। राजेन्द्र प्रसाद तुरन्त चम्पारन पहुँचे और गांधी जी में उनकी दिलचस्पी जागी। पहली बार मिलने पर उन्हें गांधी जी की शक्ल या बातचीत किसी ने भी प्रभावित नहीं किया था। हां, वह अपने नौकर का गांधी जी से किये दुर्व्यवहार से जिसके बारे में उन्होंने सुना था, बहुत दुखी थे।

 

सत्याग्रह की पहली विजय :यह एक चमत्कार के समान था। गांधी जी का निडरता से होकर सत्य और न्याय पर अड़े रहने से सरकार बहुत प्रभावित हुई। मुक़दमा वापस ले लिया गया और वह अब पूछताछ के लिए स्वतंत्र थे। यहाँ तक की अधिकारियों को भी उनकी मदद करने के लिये कहा गया। यह सत्याग्रह की पहली विजय थी। स्वाधीनता संघर्ष में गांधी जी का यह महत्त्वपूर्ण योगदान था। सत्याग्रह ने हमें सिखाया कि निर्भय होकर दमनकारी के विरुद्ध अपने अधिकारों के लिए अहिंसात्मक तरीके से अड़े रहो।राजेन्द्र प्रसाद चम्पारन आंदोलन के दौरान गांधीजी के वफ़ादार साथी बन गये। क़्ररीब 25,000 किसानों के बयान लिखे गये और अन्ततः यह काम उन्हें ही सौंप दिया गया। बिहार और उड़ीसा की सरकारों ने अन्ततोगत्वा इन रिपोर्टों के आधार पर एक अधिनियम पास करके चम्पारन के किसानों को लम्बे वर्षों के अन्याय से छुटकारा दिलाया। सत्याग्रह की वास्तविक सफलता लोगों के हृदय पर विजय थी। गांधीजी के आदर्शवाद, साहस और व्यावहारिक सक्रियता से प्रभावित होकर राजेन्द्र प्रसाद अपने पूरे जीवन के लिये उनके समर्पित अनुयायी बन गये। वह याद करते हैं, 'हमारे सारे दृष्टिकोण में परिवर्तन हो गया था...हम नये विचार, नया साहस और नया कार्यक्रम लेकर घर लौटे।' बाबू राजेन्द्र प्रसाद के हृदय में मानवता के लिये असीम दया थी। 'स्वार्थ से पहले सेवा' शायद यही उनके जीवन का ध्येय था। जब सन् 1914 में बंगाल और बिहार के लोग बाढ़ से पीड़ित हुए तो उनकी दयालु प्रकृति लोगों की वेदना से बहुत प्रभावित हुई। उस समय वह स्वयंसेवक बन नाव में बैठकर दिन-रात पीड़ितों को भोजन और कपड़ा बांटते। रात को वह निकट के रेलवे स्टेशन पर सो जाते। इस मानवीय कार्य के लिये जैसे उनकी आत्मा भूखी थी और यहीं से उनके जीवन में निस्स्वार्थ सेवा का आरम्भ हुआ।

 

भारत रत्न :सन 1962 में अवकाश प्राप्त करने पर राष्ट्र ने उन्हें भारत रत्‍न की सर्वश्रेष्ठ उपाधि से सम्मानित किया। यह उस पुत्र के लिये कृतज्ञता का प्रतीक था जिसने अपनी आत्मा की आवाज़ सुनकर आधी शताब्दी तक अपनी मातृभूमि की सेवा की थी।

 

निधन :अपने जीवन के आख़िरी महीने बिताने के लिये उन्होंने पटना के निकट सदाकत आश्रम चुना। यहाँ पर 28 फ़रवरी 1963 में उनके जीवन की कहानी समाप्त हुई। यह कहानी थी श्रेष्ठ भारतीय मूल्यों और परम्परा की चट्टान सदृश्य आदर्शों की। हमको इन पर गर्व है और ये सदा राष्ट्र को प्रेरणा देते रहेंगे।

 

अब्दुल कलाम

 

अब्दुल कलाम

अवुल पकिर जैनुल्लाब्दीन अब्दुल कलाम (अंग्रेज़ी: Avul Pakir Jainulabdeen Abdul Kalam; जन्म: 15 अक्तूबर, 1931, रामेश्वरम - मृत्यु: 27 जुलाई, 2015 शिलांग) जिन्हें डॉ. ए. पी. जे. अब्दुल कलाम के नाम से जाना जाता है, भारत के पूर्व राष्ट्रपति, प्रसिद्ध वैज्ञानिक और अभियंता के रूप में विख्यात हैं। इनका राष्ट्रपति कार्यकाल 25 जुलाई 2002 से 25 जुलाई 2007 तक रहा। इन्हें मिसाइल मैन के नाम से भी जाना जाता है। यह एक गैर राजनीतिक व्यक्ति रहे है। विज्ञान की दुनिया में चमत्कारिक प्रदर्शन के कारण ही राष्ट्रपति भवन के द्वार इनके लिए स्वत: खुल गए। जो व्यक्ति किसी क्षेत्र विशेष में सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करता है, उसके लिए सब सहज हो जाता है और कुछ भी दुर्लभ नहीं रहता। अब्दुल कलाम इस उद्धरण का प्रतिनिधित्व करते नज़र आते हैं। इन्होंने विवाह नहीं किया है। इनकी जीवन गाथा किसी रोचक उपन्यास के नायक की कहानी से कम नहीं है। चमत्कारिक प्रतिभा के धनी अब्दुल कलाम का व्यक्तित्व इतना उन्नत है कि वह सभी धर्म, जाति एवं सम्प्रदायों के व्यक्ति नज़र आते हैं। यह एक ऐसे स्वीकार्य भारतीय हैं, जो सभी के लिए 'एक महान आदर्श' बन चुके हैं। विज्ञान की दुनिया से देश का प्रथम नागरिक बनना कपोल कल्पना मात्र नहीं है क्योंकि यह एक जीवित प्रणेता की सत्यकथा है।

 

जीवन परिचय :अब्दूल कलाम का पूरा नाम 'डॉक्टर अवुल पाकिर जैनुल्लाब्दीन अब्दुल कलाम' है। इनका जन्म 15 अक्टूबर 1931 को रामेश्वरम तमिलनाडु में हुआ। द्वीप जैसा छोटा सा शहर प्राकृतिक छटा से भरपूर था। शायद इसीलिए अब्दुल कलाम जी का प्रकृति से बहुत जुड़ाव रहा है। रामेश्वरम का प्राकृतिक सौन्दर्य समुद्र की निकटता के कारण सदैव बहुत दर्शनीय रहा है। इनके पिता 'जैनुलाब्दीन' न तो ज़्यादा पढ़े-लिखे थे, न ही पैसे वाले थे। वे नाविक थे, और नियम के बहुत पक्के थे। इनके पिता मछुआरों को नाव किराये पर दिया करते थे। इनके संबंध रामेश्वरम के हिन्दू नेताओं तथा अध्यापकों के साथ काफ़ी स्नेहपूर्ण थे। अब्दुल कलाम ने अपनी आरंभिक शिक्षा जारी रखने के लिए अख़बार वितरित करने का कार्य भी किया था।

 

संयुक्त परिवार :अब्दुल कलाम संयुक्त परिवार में रहते थे। परिवार की सदस्य संख्या का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि यह स्वयं पाँच भाई एवं पाँच बहन थे और घर में तीन परिवार रहा करते थे। इनका कहना था कि वह घर में तीन झूले (जिसमें बच्चों को रखा और सुलाया जाता है) देखने के अभ्यस्त थे। इनकी दादी माँ एवं माँ द्वारा ही पूरे परिवार की परवरिश की जाती थी। घर के वातावरण में प्रसन्नता और वेदना दोनों का वास था। इनके घर में कितने लोग थे और इनकी मां बहुत लोगों का खाना बनाती थीं क्योंकि घर में तीन भरे-पूरे परिवारों के साथ-साथ बाहर के लोग भी हमारे साथ खाना खाते थे। इनके घर में खुशियाँ भी थीं, तो मुश्किलें भी थी। अब्दुल कलाम के जीवन पर इनके पिता का बहुत प्रभाव रहा। वे भले ही पढ़े-लिखे नहीं थे, लेकिन उनकी लगन और उनके दिए संस्कार अब्दुल कलाम के बहुत काम आए। अब्दुल कलाम के पिता चारों वक़्त की नमाज़ पढ़ते थे और जीवन में एक सच्चे इंसान थे।

 

जीवन की एक घटना :अब्दुल कलाम के जीवन की एक घटना है, कि यह भाई-बहनों के साथ खाना खा रहे थे। इनके यहाँ चावल खूब होता था, इसलिए खाने में वही दिया जाता था, रोटियाँ कम मिलती थीं। जब इनकी मां ने इनको रोटियाँ ज़्यादा दे दीं, तो इनके भाई ने एक बड़े सच का खुलासा किया। इनके भाई ने अलग ले जाकर इनसे कहा कि मां के लिए एक-भी रोटी नहीं बची और तुम्हें उन्होंने ज़्यादा रोटियाँ दे दीं। वह बहुत कठिन समय था और उनके भाई चाहते थे कि अब्दुल कलाम ज़िम्मेदारी का व्यवहार करें। तब यह अपने जज़्बातों पर काबू नहीं पा सके और दौड़कर माँ के गले से जा लगे। उन दिनों कलाम कक्षा पाँच के विद्यार्थी थे। इन्हें परिवार में सबसे अधिक स्नेह प्राप्त हुआ क्योंकि यह परिवार में सबसे छोटे थे। तब घरों में विद्युत नहीं थी और केरोसिन तेल के दीपक जला करते थे, जिनका समय रात्रि 7 से 9 तक नियत था। लेकिन यह अपनी माता के अतिरिक्त स्नेह के कारण पढ़ाई करने हेतु रात के 11 बजे तक दीपक का उपयोग करते थे। अब्दुल कलाम के जीवन में इनकी माता का बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। इनकी माता ने 92 वर्ष की उम्र पाई। वह प्रेम, दया और स्नेह की प्रतिमूर्ति थीं। उनका स्वभाव बेहद शालीन था। इनकी माता पाँचों समय की नमाज़ अदा करती थीं। जब इन्हें नमाज़ करते हुए अब्दुल कलाम देखते थे तो इन्हें रूहानी सुकून और प्रेरणा प्राप्त होती थी।जिस घर अब्दुल कलाम का जन्म हुआ, वह आज भी रामेश्वरम में मस्जिद मार्ग पर स्थित है। इसके साथ ही इनके भाई की कलाकृतियों की दुकान भी संलग्न है। यहाँ पर्यटक इसी कारण खिंचे चले आते हैं, क्योंकि अब्दुल कलाम का आवास स्थित है। 1964 में 33 वर्ष की उम्र में डॉक्टर अब्दुल कलाम ने जल की भयानक विनाशलीला देखी और जल की शक्ति का वास्तविक अनुमान लगाया। चक्रवाती तूफ़ान में पायबन पुल और यात्रियों से भरी एक रेलगाड़ी के साथ-साथ अब्दुल कलाम का पुश्तैनी गाँव धनुषकोड़ी भी बह गया था। जब यह मात्र 19 वर्ष के थे, तब द्वितीय विश्व युद्ध की विभीषिका को भी महसूस किया। युद्ध का दवानल रामेश्वरम के द्वार तक पहुँचा था। इन परिस्थितियों में भोजन सहित सभी आवश्यक वस्तुओं का अभाव हो गया था।

 

विद्यार्थी जीवन :अब्दुल कलाम जब आठ- नौ साल के थे, तब से सुबह चार बजे उठते थे और स्नान करने के बाद गणित के अध्यापक स्वामीयर के पास गणित पढ़ने चले जाते थे। स्वामीयर की यह विशेषता थी कि जो विद्यार्थी स्नान करके नहीं आता था, वह उसे नहीं पढ़ाते थे। स्वामीयर एक अनोखे अध्यापक थे और पाँच विद्यार्थियों को प्रतिवर्ष नि:शुल्क ट्यूशन पढ़ाते थे। इनकी माता इन्हें उठाकर स्नान कराती थीं और नाश्ता करवाकर ट्यूशन पढ़ने भेज देती थीं। अब्दुल कलाम ट्यू्शन पढ़कर साढ़े पाँच बजे वापस आते थे। उसके बाद अपने पिता के साथ नमाज़ पढ़ते थे। फिर क़ुरान शरीफ़ का अध्ययन करने के लिए वह अरेशिक स्कूल (मदरसा) चले जाते थे। इसके पश्चात्त अब्दुल कलाम रामेश्वरम के रेलवे स्टेशन और बस अड्डे पर जाकर समाचार पत्र एकत्र करते थे। इस प्रकार इन्हें तीन किलोमीटर जाना पड़ता था। उन दिनों धनुषकोड़ी से मेल ट्रेन गुजरती थी, लेकिन वहाँ उसका ठहराव नहीं होता था। चलती ट्रेन से ही अख़बार के बण्डल रेलवे स्टेशन पर फेंक दिए जाते थे। अब्दुल कलाम अख़बार लेने के बाद रामेश्वरम शहर की सड़कों पर दौड़-दौड़कर सबसे पहले उसका वितरण करते थे। अब्दुल कलाम अपने भाइयों में छोटे थे, दूसरे घर के लिए थोड़ी कमाई भी कर लेता थे, इसलिए इनकी मां का प्यार इन पर कुछ ज़्यादा ही था। अब्दुल कलाम अख़बार वितरण का कार्य करके प्रतिदिन प्रात: 8 बजे घर लौट आते थे। इनकी माता अन्य बच्चों की तुलना में इन्हें अच्छा नाश्ता देती थीं, क्योंकि यह पढ़ाई और धनार्जन दोनों कार्य कर रहे थे। शाम को स्कूल से लौटने के बाद यह पुन: रामेश्वरम जाते थे ताकि ग्राहकों से बकाया पैसा प्राप्त कर सकें। इस प्रकार वह एक किशोर के रूप में भाग-दौड़ करते हुए पढ़ाई और धनार्जन कर रहे थे।

 

अब्दुल कलाम के शब्दों में :अध्यापकों के संबंध में अब्दुल कलाम काफ़ी खुशक़िस्मत थे। इन्हें शिक्षण काल में सदैव दो-एक अध्यापक ऐसे प्राप्त हुए, जो योग्य थे और उनकी कृपा भी इन पर रही। यह समय 1936 से 1957 के मध्य का था। ऐसे में इन्हें अनुभव हुआ कि वह अपने अध्यापकों द्वारा आगे बढ़ रहे हैं। अध्यापक की प्रतिष्ठा और सार्थकता अब्दुल कलाम के शब्दों में प्रस्तुत है:-यह 1936 का वर्ष था। मुझे याद है कि पाँच वर्ष कि अवस्था में रामेश्वरम के पंचायत प्राथमिक स्कूल में मेरा दीक्षा-संस्कार हुआ था। तब मेरे एक शिक्षक 'मुत्थु अय्यर' मेरी ओर विशेष ध्यान देते थे क्योंकि मैं कक्षा में अपने कार्य में बहुत अच्छा था। वह मुझसे बहुत प्रभावित थे। एक दिन वह मेरे घर आए और मेरे पिता से कहा कि मैं पढ़ाई में बहुत अच्छा हूँ। यह सुनकर मेरे घर के सभी लोग बहुत खुश हुए और मेरी पसंद की मिठाई मुझे खिलाई। एक विशिष्ट घटना जिसे मैं कभी नहीं भूल सकता, वह थी- कक्षा में 'प्रथम स्थान' प्राप्त करने की। एक बार मैं स्कूल नहीं जा सका तो मुत्थु जी मेरे घर आए और उन्होंने पिताजी से पूछा कि कोई समस्या तो नहीं है और मैं आज स्कूल क्यों नहीं आया? साथ ही उन्होंने यह भी पूछा कि क्या वह कोई सहायता कर सकते हैं? उस दिन मुझे ज्वर हो गया था। तब मुत्थु जी ने मेरी हस्तलिपि के बारे में इंगित किया जो काफ़ी ख़राब थी। उन्होंने मुझे तीन पृष्ठ प्रतिदिन अभ्यास करने का निर्देश दिया। उन्होंने मेरे पिताजी से कहा कि मैं प्रतिदिन यह अभ्यास करूँ। मैंने यह अभ्यास नियमित रूप से किया। मुत्थु जी के कार्यों को देखते हुए बाद में मेरे पिताजी ने कहा था कि वह एक अच्छे व्यक्ति ही नहीं बल्कि हमारे परिवार के भी अच्छे मित्र हैं।

 

प्रेरणा:अब्दुल कलाम 'एयरोस्पेस टेक्नोलॉजी' में आए, तो इसके पीछे इनके पाँचवीं कक्षा के अध्यापक 'सुब्रहमण्यम अय्यर' की प्रेरणा ज़रुर थी। वह हमारे स्कूल के अच्छे शिक्षकों में से एक थे। एक बार उन्होंने कक्षा में बताया कि पक्षी कैसे उड़ता है? मैं यह नहीं समझ पाया था, इस कारण मैंने इंकार कर दिया था। तब उन्होंने कक्षा के अन्य बच्चों से पूछा तो उन्होंने भी अधिकांशत: इंकार ही किया। लेकिन इस उत्तर से अय्यर जी विचलित नहीं हुए। अगले दिन अय्यर जी इस संदर्भ में हमें समुद्र के किनारे ले गए। उस प्राकृतिक दृश्य में कई प्रकार के पक्षी थे, जो सागर के किनारे उतर रहे थे और उड़ रहे थे। तत्पश्चात्त उन्होंने समुद्री पक्षियों को दिखाया, जो 10-20 के झुण्ड में उड़ रहे थे। उन्होंने समुद्र के किनारे मौजूद पक्षियों के उड़ने के संबंध में प्रत्येक क्रिया को साक्षात अनुभव के आधार पर समझाया। हमने भी बड़ी बारीकी से पक्षियों के शरीर की बनावट के साथ उनके उड़ने का ढंग भी देखा। इस प्रकार हमने व्यावहारिक प्रयोग के माध्यम से यह सीखा कि पक्षी किस प्रकार उड़ पाने में सफल होता है। इसी कारण हमारे यह अध्यापक महान थे। वह चाहते तो हमें मौखिक रूप से समझाकर ही अपने कर्तव्य की इतिश्री कर सकते थे लेकिन उन्होंने हमें व्यावहारिक उदाहरण के माध्यम से समझाया और कक्षा के हम सभी बच्चे समझ भी गए। मेरे लिए यह मात्र पक्षी की उड़ान तक की ही बात नहीं थी। पक्षी की वह उड़ान मुझमें समा गई थी। मुझे महसूस होता था कि मैं रामेश्वरम के समुद्र तट पर हूँ। उस दिन के बाद मैंने सोच लिया था कि मेरी शिक्षा किसी न किसी प्रकार के उड़ान से संबंधित होगी। उस समय तक मैं नहीं समझा था कि मैं 'उड़ान विज्ञान' की दिशा में अग्रसर होने वाला हूँ। वैसे उस घटना ने मुझे प्रेरणा दी थी कि मैं अपनी ज़िंदगी का कोई लक्ष्य निर्धारित करूँ। उसी समय मैंने तय कर लिया था कि उड़ान में करियर बनाऊँगा।अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति जॉर्ज बुश, भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के साथ अब्दुल कलाम

 

उच्च शिक्षा:एक दिन मैंने अपने अध्यापक 'श्री सिवा सुब्रहमण्यम अय्यर' से पूछा कि श्रीमान! मुझे यह बताएं कि मेरी आगे की उन्नति उड़ान से संबंधित रहते हुए कैसे हो सकती है? तब उन्होंने धैर्यपूर्वक जवाब दिया कि मैं पहले आठवीं कक्षा उत्तीर्ण करूँ, फिर हाई स्कूल। तत्पश्चात कॉलेज में मुझे उड़ान से संबंधित शिक्षा का अवसर प्राप्त हो सकता है। यदि मैं ऐसा करता हूँ तो उड़ान विज्ञान के साथ जुड़ सकता हूँ। इन सब बातों ने मुझे जीवन के लिए एक मंज़िल और उद्देश्य भी प्रदान किया। जब मैं कॉलेज गया तो मैंने भौतिक विज्ञान विषय लिया। जब मैं अभियांत्रिकी की शिक्षा के लिए 'मद्रास इंस्टीट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी' में गया तो मैंने एयरोनॉटिकल इंजीनियरिंग का चुनाव किया। इस प्रकार मेरी ज़िन्दगी एक 'रॉकेट इंजीनियर', 'एयरोस्पेस इंजीनियर' और 'तकनीकी कर्मी' की ओर उन्मुख हुई। वह एक घटना जिसके बारे में मेरे अध्यापक ने मुझे प्रत्यक्ष उदाहरण से समझाया था, मेरे जीवन का महत्त्वपूर्ण बिन्दु बन गई और अंतत: मैंने अपने व्यवसाय का चुनाव भी कर लिया।

 

अद्वितीय व्याख्यान:अब मैं अपने गणित के अध्यापक 'प्रोफेसर दोदात्री आयंगर' के विषय में चर्चा करना चाहूँगा। विज्ञान के छात्र के रूप में मुझे 'सेंट जोसेफ कॉलेज' में देवता के समान एक व्यक्ति को प्रति सुबह देखने का अवसर प्राप्त होता था, जो विद्यार्थियों को गणित पढ़ाया करते थे। बाद में मुझे उनसे गणित पढ़ने का अवसर प्राप्त हुआ। उन्होंने मेरी प्रतिभा को बहुत हद तक निखारा। मैंने उनकी कक्षा में आधुनिक बीजगणित, सांख्यिकी और कॉंम्पलेक्स वेरिएबल्स का अध्ययन किया। 1952 में इन्होंने एक अद्वितीय व्याख्यान दिया, जो भारत के प्राचीन गणितज्ञों एवं खगोलविज्ञों के संबंध में था। इस व्याख्यान में इन्होंने भारत के चार गणितज्ञों एवं खगोलविज्ञों के बारे में बताया था, जो इस प्रकार थे- आर्यभट्ट, श्रीनिवास रामानुजन, ब्रह्मगुप्त और भास्कराचार्य।इसके अलावा एम.आई.टी.'प्रोफेसर श्रीनिवास' (जो डायरेक्टर भी थे) का भी काफ़ी योगदान रहा अब्दुल कलाम की प्रतिभा निखारने में। इनके विषय में अब्दुल कलाम ने कहा था:- शिक्षक को एक प्रशिक्षक भी होना चाहिए- प्रोफेसर श्रीनिवासन की भाँति।'

 

कार्यक्षेत्र :1962 में वे 'भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन' में आये। डॉक्टर अब्दुल कलाम को प्रोजेक्ट डायरेक्टर के रूप में भारत का पहला स्वदेशी उपग्रह (एस.एल.वी. तृतीय) प्रक्षेपास्त्र बनाने का श्रेय हासिल है। जुलाई 1980 में इन्होंने रोहिणी उपग्रह को पृथ्वी की कक्षा के निकट स्थापित किया था। इस प्रकार भारत भी 'अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष क्लब' का सदस्य बन गया। 'इसरो लॉन्च व्हीकल प्रोग्राम' को परवान चढ़ाने का श्रेय भी इन्हें प्रदान किया जाता है। डॉक्टर कलाम ने स्वदेशी लक्ष्य भेदी (गाइडेड मिसाइल्स) को डिज़ाइन किया। इन्होंने अग्नि एवं पृथ्वी जैसी मिसाइल्स को स्वदेशी तकनीक से बनाया था। डॉक्टर कलाम जुलाई 1992 से दिसम्बर 1999 तक रक्षा मंत्री के 'विज्ञान सलाहकार' तथा 'सुरक्षा शोध और विकास विभाग' के सचिव थे। उन्होंने स्ट्रेटेजिक मिसाइल्स सिस्टम का उपयोग आग्नेयास्त्रों के रूप में किया। इसी प्रकार पोखरण में दूसरी बार न्यूक्लियर विस्फोट भी परमाणु ऊर्जा के साथ मिलाकर किया। इस तरह भारत ने परमाणु हथियार के निर्माण की क्षमता प्राप्त करने में सफलता अर्जित की। डॉक्टर कलाम ने भारत के विकास स्तर को 2020 तक विज्ञान के क्षेत्र में अत्याधुनिक करने के लिए एक विशिष्ट सोच प्रदान की। यह भारत सरकार के 'मुख्य वैज्ञानिक सलाहकार' भी रहे।

 

व्यावसायिक परिचय :डॉ. अब्दुल कलाम जब एच.ए.एल. से एक वैमानिकी इंजीनियर बनकर निकले तो इनके पास नौकरी के दो बड़े अवसर थे। ये दोनों ही उनके बरसों पुराने उड़ान के सपने को पूरा करने वाले थे। एक अवसर भारतीय वायुसेना का था और दूसरा रक्षा मंत्रालय के अधीन तकनीकी विकास एवं उत्पादन निदेशालय, का था। उन्होंने दोनों जगहों पर साक्षात्कार दिया। वे रक्षा मंत्रालय के तकनीकी विकास एवं उत्पादन निदेशालय में चुन लिए गए। सन् 1958 में इन्होंने 250 रूपए के मूल वेतन पर निदेशालय के तकनीकी केंद्र (उड्डयन) में वरिष्ठ वैज्ञानिक सहायक के पद पर काम संभाल लिया। निदेशालय में नौकरी के पहले साल के दौरान इन्होंने आफिसर-इंचार्ज आर. वरदराजन की मदद से एक अल्ट्रासोनिक लक्ष्यभेदी विमान का डिजाइन तैयार करने में सफलता हासिल कर ली। विमानों के रख-रखाव का अनुभव हासिल करने के लिए इन्हें एयरक्रॉफ्ट एण्ड आर्मामेंट टेस्टिंग यूनिट, कानपुर भेजा गया। उस समय वहाँ एम.के.-1 विमान के परीक्षण का काम चल रहा था। इसकी कार्यप्रणालियों के मूल्यांकन को पूरा करने के काम में इन्होंने भी हिस्सा लिया। वापस आने पर इन्हें बंगलौर में स्थापित वैमानिकी विकास प्रतिष्ठान में भेज दिया गया। यहाँ ग्राउंड इक्विपमेंट मशीन के रूप में स्वदेशी होवरक्रॉफ्ट का डिजाइन तथा विकास करने के लिए एक टीम बनाई गई। वैज्ञानिक सहायक के स्तर पर इसमें चार लोग शामिल थे, जिसका नेतृत्व करने का कार्यभार निदेशक डॉ. ओ. पी. मेदीरत्ता ने डॉ. कलाम पर सौंपा। उड़ान में इंजीनियरिंग मॉडल शुरू करने के लिए इन्हें तीन साल का वक्त दिया गया। भगवान् शिव के वाहन के प्रतीक रूप में इस होवरक्राफ्ट को 'नंदी' नाम दिया गया।

 

रॉकेट इंजीनियर के पद पर :कालान्तर में डॉ. अब्दुल कलाम को इंडियन कमेटी फॉर स्पेस रिसर्च की ओर से साक्षात्कार के लिए बुलावा आया। उनका साक्षात्कार अंतरिक्ष कार्यक्रम के जनक डॉ. विक्रम साराभाई ने खुद लिया। इस साक्षात्कार के बाद भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान समिति में रॉकेट इंजीनियर के पद पर उन्हें चुन लिया गया। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान समिति में इनका काम टाटा इंस्टीट्यूट आफ फण्डामेंटल रिसर्च के कंप्यूटर केंद्र में काम शुरू किया। सन् 1962 में भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान समिति ने केरल में त्रिवेंद्रम के पास थुंबा नामक स्थान पर रॉकेट प्रक्षेपण केंद्र स्थापित करने का फैसला किया। थुंबा को इस केंद्र के लिए सबसे उपयुक्त स्थान के रूप में चुना गया था, क्योंकि यह स्थान पृथ्वी के चुंबकीय अक्ष के सबसे क़रीब था। उसके बाद शीघ्र ही डॉ. कलाम को रॉकेट प्रक्षेपण से जुड़ी तकनीकी बातों का प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए अमेरिका में नेशनल एयरोनॉटिक्स एंड स्पेस एडमिनिस्ट्रेशन यानी 'नासा' भेजा गया। यह प्रशिक्षण छह महीने का था। जैसे ही डॉ. अब्दुल कलाम नासा से लौटे, 21 नवंबर, 1963 को भारत का 'नाइक-अपाचे' नाम का पहला रॉकेट छोड़ा गया। यह साउंडिंग रॉकेट नासा में ही बना था। डॉ. साराभाई ने राटो परियोजना के लिए डॉ. कलाम को प्रोजेक्ट लीडर नियुक्त किया। डॉ. कलाम ने विशेष वित्तीय शक्तियाँ हासिल की, प्रणाली विकसित की तथा 8 अक्टूबर 1972 को उत्तर प्रदेश में बरेली एयरफोर्स स्टेशन पर इस प्रणाली का सफलतापूर्वक परीक्षण किया गया।[1]

 

एसएलवी-3 परियोजना के प्रबंधक :उनके जीवन का अगला बड़ा अवसर तब आया जब डॉ. अब्दुल कलाम को भारत के सैटेलाइट लांच वेहिकल (एस.एल.वी.) परियोजना का प्रबंधक बनाया गया। परियोजना प्रमुख के रूप में नामांकित करना एक सम्मान भी था और चुनौती भी थी। एस.एल.वी.-3 परियोजना का मुख्य उद्देश्य एक भरोसेमंद प्रमोचन यान विकसित करना था जो 40 किलोग्राम के एक उपग्रह को पृथ्वी से 400 किलोमीटर की ऊंचाई वाली कक्षा में स्थापित कर सके। इसमें एक बड़ा काम था यान के चार चरणों के लिए एक रॉकेट मोटर सिस्टम का विकास। हाई एनर्जी प्रोपेलेंट के इस्तेमाल में सक्षम रॉकेट मोटर सिस्टम में इस्तेमाल के लिए 8.5 टन प्रोपेलेंट ग्रेन निर्मित किया जाना था। एक अन्य कार्य था नियंत्रण तथा मार्गदर्शन। यह एक बड़ी परियोजना थी जिसमें दो सौ पचास उप-भाग और चालीस बड़ी उपप्रणालियाँ शामिल थीं। सभी गतिविधियों में तालमेल बैठाना और टीम का कुशल नेतृत्व करना डॉ. कलाम के लिए एक चुनौती थी। अंततः कड़ी मेहनत के बाद 18 जुलाई, 1980 को सुबह आठ बजकर तीन मिनट पर श्रीहरिकोटा रॉकेट प्रक्षेपण केंद्र से एस.एल.वी.-3 ने सफल उड़ान भरी। इस परियोजना की सफलता ने डॉ. अब्दुल कलाम को राष्ट्रीय पहचान दी। इस उपलब्धि के लिए उन्हें भारत सरकार द्वारा 26 जनवरी 1981 को 'पद्मभूषण' से सम्मानित किया गया।[1]

 

पुस्तकें :डॉक्टर कलाम ने साहित्यिक रूप से भी अपने शोध को चार उत्कृष्ट पुस्तकों में समाहित किया है, जो इस प्रकार हैं-'विंग्स ऑफ़ फायर''इण्डिया 2020- ए विज़न फ़ॉर द न्यू मिलेनियम''माई जर्नी''इग्नाटिड माइंड्स- अनलीशिंग द पॉवर विदिन इंडिया'।महाशक्ति भारतहमारे पथ प्रदर्शकहम होंगे कामयाबअदम्य साहसछुआ आसमानभारत की आवाज़टर्निंग प्वॉइंट्सइन पुस्तकों का कई भारतीय तथा विदेशी भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। इन्होंने अपनी जीवनी 'विंग्स ऑफ़ फायर' भारतीय युवाओं को मार्गदर्शन प्रदान करने वाले अंदाज़ में लिखी है। इनकी दूसरी पुस्तक 'गाइडिंग सोल्स- डायलॉग्स ऑफ़ द पर्पज़ ऑफ़ लाइफ' आत्मिक विचारों को उद्घाटित करती है इन्होंने तमिल भाषा में कविताऐं भी लिखी हैं। दक्षिणी कोरिया में इनकी पुस्तकों की काफ़ी माँग है और वहाँ इन्हें बहुत अधिक पसंद किया जाता है।

 

सम्मान और पुरस्कार :डॉ. कलाम को अनेक सम्मान और पुरस्कार मिले हैं जिनमें शामिल हैं-इंस्टीट्यूशन ऑफ़ इंजीनियर्स का नेशनल डिजाइन अवार्डएरोनॉटिकल सोसाइटी ऑफ़ इंडिया का डॉ. बिरेन रॉय स्पेस अवार्डएस्ट्रोनॉटिकल सोसाइटी ऑफ़ इंडिया का आर्यभट्ट पुरस्कारविज्ञान के लिए जी.एम. मोदी पुरस्कारराष्ट्रीय एकता के लिए इंदिरा गांधी पुरस्कार।ये भारत के एक विशिष्ट वैज्ञानिक हैं, जिन्हें 30 विश्वविद्यालयों और संस्थानों से डॉक्टरेट की मानद उपाधि प्राप्त हो चुकी है।इन्हें भारत के नागरिक सम्मान के रूप में 1981 में पद्म भूषण, 1990 में पद्म विभूषण, 1997 में भारत रत्न सम्मान प्राप्त हो चुके है।

 

अंतिम समय :अंतिम समय में डॉ. कलाम काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, भारतीय प्रबंधन संस्थान शिलांग, भारतीय प्रबंधन संस्थान अहमदाबाद तथा भारतीय प्रबंधन संस्थान इंदौर में आगंतुक प्रोफेसर रहे। साथ ही भारतीय अंतरिक्ष विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संस्थान तिरूवंतपुरम् में कुलाधिपति तथा अन्ना विश्वविद्यालय चेन्नई में एयरो इंजीनियरिंग के प्रध्यापक के पद में नियुक्त रहे।[1]

 

पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम का निधन :पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम का 83 वर्ष की अवस्था में 27 जुलाई, 2015 सोमवार को निधन हो गया। कलाम आईआईएम शिलांग में भाषण दे रहे थे। इसी वक्त उनकी तबीयत बिगड़ गई। कलाम का निधन अस्पताल ले जाते समय रास्ते में हुआ। कलाम के निधन का समाचार पाकर पूरे देश में शोक की लहर दौड़ गई। 'मिसाइल मैन' के नाम से मशहूर अब्दुल कलाम ने सोमवार सुबह 11.30 बजे आख़िरी ट्वीट किया था, शिलॉन्ग जा रहा हूं, लिवेबल प्लेनेट अर्थ पर आईआईएम में एक कार्यक्रम में भाग लेने। उनका भारत की मिसाइल टेक्नोलॉजी में अहम योगदान था और वे पोलर सैटेलाइट लॉंच व्हीकल के जनक माने जाते हैं। एरोनॉटिकल इंजीनियरिंग करने के बाद उन्होंने 1969 में भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन ज्वॉइन किया। उन्हें 1997 में भारत रत्न से नवाज़ा गया।

 

श्रद्धांजलि :प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने ट्विटर पर अपने शोक संदेश कहा कि भारत एक महान वैज्ञानिक, अदभुत राष्ट्रपति और एक प्रेरणादायक व्यक्ति की मृत्यु पर शोक प्रकट करता है।संगीतकार ए. आर. रहमान ने उनके निधन पर कहा, डॉक्टर कलाम, जब आप राष्ट्रपति बने तो आपने भारतीयों को 'उम्मीद' शब्द के नए मायने दिए।आरबीआई गवर्नर रघुराम राजन ने ट्वीट किया- 'महान लोगों के महान सपने हमेशा आगे पहुंचते हैं। एपीजे अब्दुल कलाम को श्रद्धांजलि।'

अरस्तू

अरस्तू (जन्म- 384 ई. पू., स्टेगीरस, ग्रीस; मृत्यु-322 ई.पू., ग्रीस) एक प्रसिद्ध और महान यूनानी दार्शनिक तथा वैज्ञानिक थे। उन्हें प्लेटो के सबसे मेधावी शिष्यों में गिना जाता था। विश्व विजेता कहलाने वाला सिकन्दर अरस्तू का ही शिष्य था। अरस्तू ने प्लेटो की शिष्यता 17 वर्ष की आयु में ग्रहण की थी। राजा फ़िलिप के निमंत्रण पर अरस्तू को अल्पवयस्क सिकन्दर का गुरु नियुक्त किया गया था। उन्होंने भौतिकी, आध्यात्म, कविता, नाटक, संगीत, तर्कशास्त्र, राजनीतिशास्त्र और जीव विज्ञान सहित कई विषयों पर रचनाएँ की थीं।

 

जन्म तथा शिक्षा :अरस्तू का जन्म एथेंस के उत्तर में स्थित मेसेडोनिया के प्रसिद्ध नगर 'स्टेगीरस' में हुआ था। बचपन से ही अरस्तू को जीवनशास्त्र का कुछ ज्ञान विरासत में ही मिला। अरस्तू सत्रह वर्ष की आयु में प्लेटो की अकादमी में प्रवेश लेने एथेंस आ गये और बीस वर्ष तक वहीं पर रहे। अरस्तू प्लेटो के राजनितिक दर्शन को वैज्ञानिक रूप देने वाले पहले शिष्य थे। वैसे तो प्लेटो की अकादमी के पहले हकदार अरस्तू ही थे, लेकिन विदेशी होने के कारण उन्हें यह गौरव प्राप्त नहीं हो सका। अरस्तू प्लेटो की मंडली के सबसे बुद्धिमान और मेधावी युवकों में से एक थे। जब उनके गुरु की मृत्यु हो गयी, तब उन्होंने दु:खी होकर एथेंस को छोड़ दिया।[1]

 

सिकन्दर के गुरु :एथेंस को छोड़ने के बाद अरस्तू एशिया माइनर के एथेंस नगर में चले आये और वहाँ पर एक अकादमी की स्थापना की। यहीं पर हर्मियस की दूसरी बेटी पीथीयस से उनका विवाह हो गया। लगभग 343 ईसा पूर्व मैसीडोनिया के शासक फ़िलिप के निमन्त्रण पर सिकन्दर को शिक्षा देने के लिए उनकी राजधानी पेला आये और 7 वर्ष बाद प्रचुर धन अपने साथ लेकर वापस एथेंस आ गये।

 

रचनाएँ :अरस्तू को दर्शन, राजनीति, काव्य, आचारशास्त्र, शरीर रचना, दवाइयों, ज्योतिष आदि का काफ़ी अच्छा ज्ञान था। उनके लिखे हुए ग्रन्थों की संख्या 400 तक बताई जाती है। अरस्तू राज्य को सर्वाधिक संस्था मानते थे। उनकी राज्य संस्था कृत्रिम नहीं, बल्कि प्राकृतिक थी। इसे वह मनुष्य के शरीर का अंग मानते थे और इसी आधार पर मनुष्य को प्राकृतिक प्राणी कहते थे।

 

मृत्यु :वापस आकर अरस्तू ने अपोलो के मन्दिर के पास एक विद्यापीठ की स्थापना की, जो की 'पर्यटक विद्यापीठ' के नाम से प्रसिद्ध हुआ। अरस्तू का बाकी जीवन यहीं पर बीता। अपने महान शिष्य सिकन्दर की मृत्यु के बाद अरस्तू ने भी विष पीकर आत्महत्या कर ली

राम प्रसाद बिस्मिल

 



राम प्रसाद बिस्मिल

जन्म: 11 जून, 1897, शाहजहाँपुर

 

मृत्यु: 19 दिसंबर, 1927, गोरखपुर

 

कार्य: स्वतंत्रता सेनानी, कवि, अनुवादक, बहुभाषाविद्

 

जब-जब भारत के स्वाधीनता इतिहास में महान क्रांतिकारियों की बात होगी तब-तब भारत मां के इस वीर सपूत का जिक्र होगा। राम प्रसाद बिस्मिल एक महान क्रन्तिकारी ही नहीं, बल्कि उच्च कोटि के कवि, शायर, अनुवादक, बहुभाषाविद् व साहित्यकार भी थे। इन्होने अपनी बहादुरी और सूझ-बूझ से अंग्रेजी हुकुमत की नींद उड़ा दी और भारत की आज़ादी के लिये मात्र 30 साल की उम्र में अपने प्राणों की आहुति दे दी। बिस्मिल उपनाम के अतिरिक्त वे राम और अज्ञात के नाम से भी लेख व कवितायें लिखते थे। उनकी प्रसिद्ध रचना सरफरोशी की तमन्ना.. गाते हुए न जाने कितने क्रन्तिकारी देश की आजादी के लिए फाँसी के तख्ते पर झूल गये। राम प्रसाद बिस्मिल ने मैनपुरी कांड और काकोरी कांड को अंजाम देकर अंग्रेजी साम्राज्य को हिला दिया था। लगभग 11 वर्ष के क्रान्तिकारी जीवन में उन्होंने कई पुस्तकें लिखीं और स्वयं ही उन्हें प्रकाशित किया। उनके जीवन काल में प्रकाशित हुई लगभग सभी पुस्तकों को ब्रिटिश सरकार ने ज़ब्त कर लिया था।

 

प्रारंभिक जीवन

 

राम प्रसाद बिस्मिल का जन्म 11 जून 1897 को उत्तर प्रदेश के शाहजहाँपुर जिले में हुआ था। उनके पिता का नाम मुरलीधर और माता का नाम मूलमती था। जब राम प्रसाद सात वर्ष के हुए तब पिता पंडित मुरलीधर घर पर ही उन्हें हिन्दी अक्षरों का ज्ञान कराने लगे। उस समय उर्दू का भी बोलबाला था इसलिए हिन्दी शिक्षा के साथ-साथ बालक को उर्दू पढ़ने के लिए एक मौलवी साहब के पास भेजा जाता था। उनके पिता पंडित मुरलीधर राम की शिक्षा पर विशेष ध्यान देते थे और पढ़ाई के मामले में जरा भी लापरवाही करने पर मार भी पड़ती थी।

 

आठवीं कक्षा तक वो हमेश कक्षा में प्रथम आते थे, परन्तु कुसंगति के कारण उर्दू मिडिल परीक्षा में वह लगातार दो वर्ष अनुत्तीर्ण हो गए। राम प्रसाद की इस अवनति से सभी को बहत दु:ख हुआ और दो बार एक ही परीक्षा में अनुत्तीर्ण होने पर उनका मन भी उर्दू की पढ़ाई से उठ गया। इसके बाद उन्होंने अंग्रेज़ी पढ़ने की इच्छा व्यक्त की। उनके पिता अंग्रेज़ी पढ़ाने के पक्ष में नहीं थे पर रामप्रसाद की मां के कहने पर मान गए। नवीं कक्षा में जाने के बाद रामप्रसाद आर्य समाज के सम्पर्क में आये और उसके बाद उनके जीवन की दशा ही बदल गई। आर्य समाज मंदिर शाहजहाँपुर में वह स्वामी सोमदेव के संपर्क में आये। जब रामप्रसाद बिस्मिल 18 वर्ष के थे तब स्वाधीनता सेनानी भाई परमानन्द को ब्रिटिश सरकार ने ग़दर षड्यंत्र में शामिल होने के लिए फांसी की सजा सुनाई (जो बाद में आजीवन कारावास में तब्दील कर दी गयी और फिर 1920 में उन्हें रिहा भी कर दिया गया)। यह खबर पढ़कर रामप्रसाद बहुत विचलित हुए और मेरा जन्म शीर्षक से एक कविता लिखी और उसे स्वामी सोमदेव को दिखाया। इस कविता में देश को अंग्रेजी हुकुमत से मुक्ति दिलाने की प्रतिबद्धिता दिखाई दी।

 

इसके बाद रामप्रसाद ने पढ़ाई छोड़ दी और सन् 1916 में कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन के दौरान कांग्रेस के नरम दल के विरोध के बावजूद लोकमान्य बालगंगाधर तिलक की पूरे लखनऊ शहर में शोभायात्रा निकाली। इसी अधिवेशन के दौरान उनकी मुलाकात केशव बलिराम हेडगेवार, सोमदेव शर्मा व मुकुन्दीलाल आदि से हुआ। इसके बाद कुछ साथियों की मदद से उन्होंने अमेरिका की स्वतंत्रता का इतिहास नामक एक पुस्तक प्रकाशित की जिसे उत्तर प्रदेश सरकार ने प्रकाशित होते ही प्रतिबंधित कर दिया।

 

मैनपुरी षडयन्त्र

 

रामप्रसाद बिस्मिल ने अंग्रेजी साम्राज्यवाद से लड़ने और देश को आज़ाद कराने के लिए मातृदेवी नाम की एक क्रन्तिकारी संगठन की स्थापना की। इस कार्य के लिए उन्होंने औरैया के पंडित गेंदा लाल दीक्षित की मदद ली। स्वामी सोमदेव चाहते थे कि इस कार्य में रामप्रसाद की मदद कोई अनुभवी व्यक्ति करे इस कारण उन्होंने उनका परिचय पंडित गेंदा लाल से करवाया। रामप्रसाद बिस्मिल की तरह पंडित जी ने भी शिवाजी समिति नाम की एक क्रन्तिकारी संगठन की स्थापना की थी। दोनों ने मिलकर इटावा, मैनपुरी, आगरा और शाहजहाँपुर जिलों के युवकों को देश सेवा के लिए संगठित किया। जनवरी 1918 में बिस्मिल ने देशवासियों के नाम सन्देश नाम का एक पैम्फलेट प्रकाशित किया और अपनी कविता मैनपुरी की प्रतिज्ञा के साथ-साथ इसका भी वितरण करने लगे। सन 1918 में उन्होंने अपने संगठन को मजबूत करने के लिए 3 बार डकैती भी डाली। 1918 में कांग्रेस के दिल्ली अधिवेसन के दौरान पुलिस ने उनको और उनके संगठन के दूसरे सदस्यों को प्रतिबंधित साहित्य बेचने के लिए छापा डाला पर बिस्मिल भागने में सफल रहे। पुलिस से मुठभेड़ के बाद उन्होंने यमुना में छलांग लगा दी और तैर कर आधुनिक ग्रेटर नॉएडा के बीहड़ों में चले गए। इन बीहड़ों में उन दिनों केवल बबूल के वृक्ष ही हुआ करते थे और इंसान कहीं दूर-दूर तक नहीं दीखता था।

 

उधर मैनपुरी षड्यंत्र मुकदमे में ब्रिटिश जज ने फैसला सुनते हुए बिस्मिल और दीक्षित को भगोड़ा घोषित कर दिया।

 

राम प्रसाद बिस्मिल ने ग्रेटर नॉएडा के एक छोटे से गाँव रामपुर जागीर में शरण ली और कई महीने यहाँ के निर्जन जंगलों में घूमते रहे। इसी दौरान उन्होंने अपना क्रान्तिकारी उपन्यास बोल्शेविकों की करतूत लिखा और यौगिक साधन का हिन्दी अनुवाद भी किया। इसके बाद बिस्मिल कुछ समय तक इधर-उधर भटकते रहे और जब फरवरी 1920 में सरकार ने मैनपुरी षड्यंत्र के सभी बंदियों को रिहा कर दिया तब वो भी शाहजहाँपुर वापस लौट गए।

 

सितम्बर 1920 में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में वो शाहजहाँपुर काँग्रेस कमेटी के अधिकृत प्रतिनिधि के रूप में शामिल हुए। वहां उनकी मुलाकात लाला लाजपत राय से हुई, जो उनकी लिखी हुई पुस्तकों से बहुत प्रभावित हुए और उनका परिचय कलकत्ता के कुछ प्रकाशकों से करा दिया। इन्ही प्रकाशकों में से एक उमादत्त शर्मा ने आगे चलकर सन् 1922 में राम प्रसाद बिस्मिल की एक पुस्तक कैथेराइन छापी थी।

 

सन 1921 में उन्होंने कांग्रेस के अहमदाबाद अधिवेशन में भाग लिया और मौलाना हसरत मोहनी के साथ मिलकर पूर्ण स्वराज का प्रस्ताव कांग्रेस के साधारण सभा में पारित करवाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। शाहजहाँपुर लौटकर उन्होंने लोगों को असहयोग आन्दोलन में भाग लेने के लिए प्रेरित किया। जब चौरीचौरा काण्ड के पश्चात गांधी जी ने असहयोग आन्दोलन वापस ले लिया तो सन 1922 के गया अधिवेशन में बिस्मिल व उनके साथियों के विरोध स्वरुप कांग्रेस में फिर दो विचारधारायें बन गयीं – एक उदारवादी और दूसरी विद्रोही।

 

एच॰आर॰ए॰ का गठन

 

सितम्बर 1923 में हुए दिल्ली के विशेष कांग्रेस अधिवेशन में असन्तुष्ट नवयुवकों ने एक क्रन्तिकारी पार्टी बनाने का निर्णय किया। सुप्रसिद्ध क्रान्तिकारी लाला हरदयाल, जो उन दिनों विदेश में रहकर देश की आजादी का प्रयत्न कर रहे थे, ने पत्र लिखकर राम प्रसाद बिस्मिल को शचींद्रनाथ सान्याल व यदु गोपाल मुखर्जी से मिलकर नयी पार्टी का संविधान तैयार करने की सलाह दी थी।

 

3 अक्टूबर 1924 को हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन की एक बैठक कानपुर में की गयी जिसमें शचीन्द्रनाथ सान्याल, योगेश चन्द्र चटर्जी व राम प्रसाद बिस्मिल आदि कई प्रमुख सदस्य शामिल हुए। पार्टी के लिये फण्ड एकत्र करने के लिए 25 दिसम्बर 1924 को बमरौली में डकैती डाली गयी।

 

काकोरी कांड

 

पार्टी के कार्य हेतु धन की आवश्यकता पूर्ण करने के लिए बिस्मिल ने सरकारी खजाना लूटने की योजना बनायीं और उनके नेतृत्व में कुल 10 लोगों (जिनमें अशफाक उल्ला खाँ, राजेन्द्र लाहिड़ी, चन्द्रशेखर आजाद, शचीन्द्रनाथ बख्शी, मन्मथनाथ गुप्त, मुकुन्दी लाल, केशव चक्रवर्ती, मुरारी शर्मा और बनवारी लाल आदि शामिल थे) ने लखनऊ के पास काकोरी स्टेशन पर ट्रेन रोककर 9 अगस्त 1925 को सरकारी खजाना लूट लिया। 26 सितम्बर 1925 को बिस्मिल के साथ पूरे देश में 40 से भी अधिक लोगों को काकोरी डकैती मामले में गिरफ्तार कर लिया गया।

 

फांसी की सजा

 

रामप्रसाद बिस्मिल को अशफाक उल्ला खाँ, राजेन्द्र लाहिड़ी और रोशन सिंह के साथ मौत की सजा सुनाई गयी। उन्हें 19 दिसम्बर 1927 को गोरखपुर जेल में फांसी दे दी गयी।

 

जिस समय रामप्रसाद बिस्मिल को फांसी लगी उस समय जेल के बाहर हजारों लोग उनके अंतिम दर्शनों की प्रतीक्षा कर रहे थे। हज़ारों लोग उनकी शवयात्रा में सम्मिलित हुए और उनका अंतिम संस्कार वैदिक मंत्रों के साथ राप्ती के तट पर किया गया।

Friday, 25 December 2020

निधिवन रासलीला

 


. निधिवन

एक बार कलकत्ता का एक भक्त अपने गुरु की सुनाई हुई भागवत कथा से इतना मोहित हुआ कि वह हर समय वृन्दावन आने की सोचने लगा उसके गुरु उसे निधिवन के बारे में बताया करते थे और कहते थे कि आज भी भगवान यहाँ रात्रि को रास रचाने आते है उस भक्त को इस बात पर विश्वास नहीं हो रहा था,

और एक बार उसने निश्चय किया कि वृन्दावन जाऊंगा और ऐसा ही हुआ। श्री राधा रानी की कृपा हुई और आ गया वृन्दावन उसने जी भर कर बिहारी जी का राधा रानी का दर्शन किया लेकिन अब भी उसे इस बात का यकीन नहीं था कि निधिवन में रात्रि को भगवान रास रचाते हैं।

उसने सोचा कि एक दिन निधिवन रुक कर देखता हू इसलिए वो वही पर रूक गया और देर तक बैठा रहा और जब शाम होने को आई तब एक पेड़ की लता की आड़ में छिप गया।

जब शाम के वक़्त वहा के पुजारी निधिवन को खाली करवाने लगे तो उनकी नज़र उस भक्त पर पड गयी और उसे वहाँ से जाने को कहा तब तो वो भक्त वहाँ से चला गया, लेकिन अगले दिन फिर से वहा जाकर छिप गया और फिर से शाम होते ही पुजारियों द्वारा निकाला गया और आखिर में उसने निधिवन में एक ऐसा कोना खोज निकाला जहा उसे कोई न ढूंढ़ सकता था, और वो आँखे मूंदे सारी रात वही निधिवन में बैठा रहा और अगले दिन जब सेविकाए निधिवन में साफ़ सफाई करने आई तो पाया कि एक व्यक्ति बेसुध पड़ा हुआ है और उसके मुह से झाग निकल रहा है।

तब उन सेविकाओं ने सभी को बताया तो लोगो कि भीड़ वहाँ पर जमा हो गयी सभी ने उस व्यक्ति से बोलने की कोशिश की लेकिन वो कुछ भी नहीं बोल रहा था, लोगो ने उसे खाने के लिए मिठाई आदि दी लेकिन उसने नहीं ली और ऐसे ही वो ३ दिन तक बिना कुछ खाए-पीये ऐसे ही बेसुध पड़ा रहा और ५ दिन बाद उसके गुरु जो कि गोवर्धन में रहते थे, बताया गया तब उसके गुरूजी वहाँ पहुँचे और उसे गोवर्धन अपने आश्रम में ले आये।

आश्रम में भी वो ऐसे ही रहा और एक दिन सुबह सुबह उस व्यक्ति ने अपने गुरूजी से लिखने के लिए कलम और कागज़ माँगा गुरूजी ने ऐसा ही किया और उसे वो कलम और कागज़ देकर मानसी गंगा में स्नान करने चले गए जब गुरूजी स्नान करके आश्रममें आये तो पाया कि उस भक्त ने दीवार के सहारे लग कर अपना शरीर त्याग दिया था, और उस कागज़ पर कुछ लिखा हुआ था।

उस पर लिखा था- "गुरूजी मैंने यह बात किसी को भी नहीं बताई है, पहले सिर्फ आपको ही बताना चाहता हूँ, आप कहते थे न कि निधिवन में आज भी भगवान रास रचाने आते है और मैं आपकी कही बात पर यकीन नहीं करता था, लेकिन जब मैं निधिवन में रूका तब मैंने साक्षात बांके बिहारी का राधा रानी के साथ गोपियों के साथ रास रचाते हुए दर्शन किया और अब मेरी जीने की कोई भी इच्छा नहीं है, इस जीवन का जो लक्ष्य था वो लक्ष्य मैंने प्राप्त कर लिया है और अब मैं जीकर करूँगा भी क्या..? श्याम सुन्दर की सुन्दरता के आगे ये दुनिया वालों की सुन्दरता कुछ भी नहीं है, इसलिए आपके श्री चरणों में मेरा अंतिम प्रणाम स्वीकार कीजिये।"

वो पत्र जो उस भक्त ने अपने गुरु के लिए लिखा था आज भी मथुरा के सरकारी संघ्रालय में रखा हुआ है और बंगाली भाषा में लिखा हुआ है।

कहा जाता है निधिवन के सारी लतायें गोपियाँ हैं, जो एक दूसरे कि बाहों में बाहें डाले खड़ी है। जब रात में निधिवन में राधा रानी जी, बिहारी जी के साथ रास लीला करती है तो वहाँ की लतायें गोपियाँ बन जाती हैं, और फिर रास लीला आरंभ होती है, इस रास लीला को कोई नहीं देख सकता,दिन भर में हजारों बंदर, पक्षी, जीव जंतु निधिवन में रहते है पर जैसे ही शाम होती है,सब जीव जंतु बंदर अपने आप निधिवन से बाहर चले जाते हैं। एक परिंदा भी फिर वहाँ पर नहीं रुकता, यहाँ तक कि जमीन के अंदर के जीव चीटी आदि भी जमीन के अंदर चले जाते हैं, रास लीला को कोई नहीं देख सकता क्योकि रास लीला इस लौकिक जगत की लीला नहीं है। रास तो अलौकिक जगत की "परम दिव्यातिदिव्य लीला" है कोई साधारण व्यक्ति या जीव अपनी आँखों से देख ही नहीं सकता. जो बड़े बड़े संत है उन्हें निधिवन से राधारानी जी और गोपियों के नुपुर की ध्वनि सुनी है।

जब रास करते करते राधा रानी जी थक जाती हैं तो बिहारी जी उनके चरण दबाते है, और रात्रि में शयन करते हैं। आज भी निधिवन में शयन कक्ष है जहाँ पुजारी जी जल का पात्र, पान, फुल और प्रसाद रखते हैं, और जब सुबह पट खोलते हैं, तो जल पीला मिलता है, पान चबाया हुआ मिलता है, और फूल बिखरे हुए मिलते है।

🙏 राधे...... 🙏 राधे........

वृन्दावन धाम या बरसाना कोई घूमने फिरने या पिकनिक मनाने की जगह नहीं है, ये आपके इष्ट की जन्मभूमि लीलाभूमि व तपोभूमि है। सबसे ख़ास बात ये प्रेमभूमि है, जब भी आओ इसको तपोभूमि समझ कर मानसिक व शारीरिक तप किया करो, शरीर से सेवा, व वाणी से राधा नाम गाया जाए, तब ही धाम मे आना सार्थक है।

एक अद्भुत मस्ती ताकत व् आनंद ले कर वापिस जाया करो .आप की धाम निष्ठां मे वृद्धि हो इसी कामना से बोलो..


जय जय श्री राधे..🌸जय श्री कृष्ण🌹🌹

खुदीराम बोस


 

खुदीराम बोस

जन्म : 3 दिसंबर, 1889, हबीबपुर, मिदनापुर ज़िला, बंगाल

 

मृत्यु : 11 अगस्त, 1908, मुजफ्फरपुर

 

कार्य : भारतीय क्रन्तिकारीभारत के स्वाधीनता संग्राम का इतिहास महान वीरों और उनके सैकड़ों साहसिक कारनामों से भरा पड़ा है। ऐसे ही क्रांतिकारियों की सूची में एक नाम खुदीराम बोस का है। खुदीराम बोस एक भारतीय युवा क्रन्तिकारी थे जिनकी शहादत ने सम्पूर्ण देश में क्रांति की लहर पैदा कर दी। खुदीराम बोस देश की आजादी के लिए मात्र 19 साल की उम्र में फाँसी पर चढ़ गये। इस वीर पुरुष की शहादत से सम्पूर्ण देश में देशभक्ति की लहर उमड़ पड़ी। इनके वीरता को अमर करने के लिए गीत लिखे गए और इनका बलिदान लोकगीतों के रूप में मुखरित हुआ। खुदीराम बोस के सम्मान में भावपूर्ण गीतों की रचना हुई जो बंगाल में लोक गीत के रूप में प्रचलित हुए।

 

प्रारंभिक जीवन :खुदीराम बोस का जन्म 3 दिसंबर 1889 ई. को बंगाल में मिदनापुर ज़िले के हबीबपुर गाँव में हुआ था। उनके पिता का नाम त्रैलोक्य नाथ बोस और माता का नाम लक्ष्मीप्रिय देवी था। बालक खुदीराम के सिर से माता-पिता का साया बहुत जल्दी ही उतर गया था इसलिए उनका लालन-पालन उनकी बड़ी बहन ने किया। उनके मन में देशभक्ति की भावना इतनी प्रबल थी कि उन्होंने स्कूल के दिनों से ही राजनीतिक गतिविधियों में भाग लेना प्रारंभ कर दिया था। सन 1902 और 1903 के दौरान अरविंदो घोष और भगिनी निवेदिता ने मेदिनीपुर में कई जन सभाएं की और क्रांतिकारी समूहों के साथ भी गोपनीय बैठकें आयोजित की। खुदीराम भी अपने शहर के उस युवा वर्ग में शामिल थे जो अंग्रेजी हुकुमत को उखाड़ फेंकने के लिए आन्दोलन में शामिल होना चाहता था। खुदीराम प्रायः अंग्रेज़ी साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ होने वाले जलसे-जलूसों में शामिल होते थे तथा नारे लगाते थे। उनके मन में देश प्रेम इतना कूट-कूट कर भरा था कि उन्होंने नौवीं कक्षा के बाद ही पढ़ाई छोड़ दी और देश की आजादी में मर-मिटने के लिए जंग-ए-आज़ादी में कूद पड़े।

 

क्रांतिकारी जीवन :बीसवीं शदी के प्रारंभ में स्वाधीनता आन्दोलन की प्रगति को देख अंग्रेजों ने बंगाल विभाजन की चाल चली जिसका घोर विरोध हुआ। इसी दौरान सन् 1905 ई. में बंगाल विभाजन के बाद खुदीराम बोस स्वाधीनता आंदोलन में कूद पड़े। उन्होंने अपना क्रांतिकारी जीवन सत्येन बोस के नेतृत्व में शुरू किया था। मात्र 16 साल की उम्र में उन्होंने पुलिस स्टेशनों के पास बम रखा और सरकारी कर्मचारियों को निशाना बनाया। वह रिवोल्यूशनरी पार्टी में शामिल हो गए और वंदेमातरम के पर्चे वितरित करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। सन 1906 में पुलिस ने बोस को दो बार पकड़ा – 28 फरवरी, सन 1906 को सोनार बंगला नामक एक इश्तहार बांटते हुए बोस पकडे गए पर पुलिस को चकमा देकर भागने में सफल रहे। इस मामले में उनपर राजद्रोह का आरोप लगाया गया और उन पर अभियोग चलाया परन्तु गवाही न मिलने से खुदीराम निर्दोष छूट गये। दूसरी बार पुलिस ने उन्हें 16 मई को गिरफ्तार किया पर कम आयु होने के कारण उन्हें चेतावनी देकर छोड़ दिया गया।6 दिसंबर 1907 को खुदीराम बोस ने नारायणगढ़ नामक रेलवे स्टेशन पर बंगाल के गवर्नर की विशेष ट्रेन पर हमला किया परन्तु गवर्नर साफ़-साफ़ बच निकला। वर्ष 1908 में उन्होंने वाट्सन और पैम्फायल्ट फुलर नामक दो अंग्रेज अधिकारियों पर बम से हमला किया लेकिन किस्मत ने उनका साथ दिया और वे बच गए।

 

किंग्जफोर्ड को मारने की योजना :बंगाल विभाजन के विरोध में लाखों लोग सडकों पर उतरे और उनमें से अनेकों भारतीयों को उस समय कलकत्ता के मॅजिस्ट्रेट किंग्जफोर्ड ने क्रूर दण्ड दिया। वह क्रान्तिकारियों को ख़ास तौर पर बहुत दण्डित करता था। अंग्रेजी हुकुमत ने किंग्जफोर्ड के कार्य से खुश होकर उसकी पदोन्नति कर दी और मुजफ्फरपुर जिले में सत्र न्यायाधीश बना दिया। क्रांतिकारियों ने किंग्जफोर्ड को मारने का निश्चय किया और इस कार्य के लिए चयन हुआ खुदीराम बोस और प्रफुल्लकुमार चाकी का। मुजफ्फरपुर पहुँचने के बाद इन दोनों ने किंग्जफोर्ड के बँगले और कार्यालय की निगरानी की। 30 अप्रैल 1908 को चाकी और बोस बाहर निकले और किंग्जफोर्ड के बँगले के बाहर खड़े होकर उसका इंतज़ार करने लगे। खुदीराम ने अँधेरे में ही आगे वाली बग्गी पर बम फेंका पर उस बग्गी में किंग्स्फोर्ड नहीं बल्कि दो यूरोपियन महिलायें थीं जिनकी मौत हो गयी। अफरा-तफरी के बीच दोनों वहां से नंगे पाँव भागे। भाग-भाग कर थक गए खुदीराम वैनी रेलवे स्टेशन पहुंचे और वहां एक चाय वाले से पानी माँगा पर वहां मौजूद पुलिस वालों को उन पर शक हो गया और बहुत मशक्कत के बाद दोनों ने खुदीराम को गिरफ्तार कर लिया। 1 मई को उन्हें स्टेशन से मुजफ्फरपुर लाया गया।उधर प्रफ्फुल चाकी भी भाग-भाग कर भूक-प्यास से तड़प रहे थे। 1 मई को ही त्रिगुनाचरण नामक ब्रिटिश सरकार में कार्यरत एक आदमी ने उनकी मदद की और रात को ट्रेन में बैठाया पर रेल यात्रा के दौरान ब्रिटिश पुलिस में कार्यरत एक सब-इंस्पेक्टर को शक हो गया और उसने मुजफ्फरपुर पुलिस को इस बात की जानकारी दे दी। जब चाकी हावड़ा के लिए ट्रेन बदलने के लिए मोकामाघाट स्टेशन पर उतरे तब पुलिस पहले से ही वहां मौजूद थी। अंग्रेजों के हाथों मरने के बजाए चाकी ने खुद को गोली मार ली और शहीद हो गए।

 

गिरफ्तारी और फांसी :खुदीराम बोस को गिरफ्तार कर मुकदमा चलाया गया और फिर फांसी की सजा सुनाई गयी। 11 अगस्त सन 1908 को उन्हें फाँसी दे दी गयी। उस समय उनकी उम्र मात्र 18 साल और कुछ महीने थी। खुदीराम बोस इतने निडर थे कि हाथ में गीता लेकर ख़ुशी-ख़ुशी फांसी चढ़ गए।उनकी निडरता, वीरता और शहादत ने उनको इतना लोकप्रिय कर दिया कि बंगाल के जुलाहे एक खास किस्म की धोती बुनने लगे और बंगाल के राष्ट्रवादियों और क्रांतिकारियों के लिये वह और अनुकरणीय हो गए। उनकी फांसी के बाद विद्यार्थियों तथा अन्य लोगों ने शोक मनाया और कई दिन तक स्कूल-कालेज बन्द रहे। इन दिनों नौजवानों में एक ऐसी धोती का प्रचलन हो चला था जिसकी किनारी पर खुदीराम लिखा होता था।

Sunday, 6 December 2020

विनायक दामोदर सावरकर

विनायक दामोदर सावरकर

जन्म: मई 28, 1883मृत्यु: फरवरी 26, 1966वीर सावरकर एक हिंदुत्ववादी नेता, राजनैतिक चिंतक और स्वतंत्रता सेनानी थे। उनका पूरा नाम विनायक दामोदर सावरकर था। सावरकर पहले स्वतंत्रता सेनानी व राजनेता थे जिसने विदेशी कपड़ों की होली जलाई थी।प्रारंभिक जीवन वीर सावरकर का जन्म 28 मई, 1883 में महाराष्ट्र के नासिक जिले के भागुर गांव में हुआ था। उनकी माता का नाम राधाबाई सावरकर और पिता दामोदर पंत सावरकर थे। उनके माता-पिता राधाबाई और दामोदर पंत की चार संतानें थीं। वीर सावरकर के तीन भाई और एक बहन भी थी। उनकी प्रारंभिक शिक्षा नासिक के शिवाजी स्कूल से हुयी थी। मात्र 9 साल की उम्र में हैजा बीमारी से उनकी मां का देहांत होगया। उसके कुछ वर्ष उपरांत उनके पिता का भी वर्ष 1899 में प्लेग की महामारी में स्वर्गवास हो गया। इसके बाद उनके बड़े भाई ने परिवार के भरण-पोषण का भार संभाला। सावरकर बचपन से ही बागी प्रवित्ति के थे। जब वे ग्यारह वर्ष के थे तभी उन्होंने ̔वानर सेना ̕नाम का समूह बनाया था। वे हाई स्कूल के दौरान बाल गंगाधर तिलक द्वारा शुरू किए गए ̔शिवाजी उत्सव ̕और ̔गणेश उत्सव ̕आयोजित किया करते थे। बाल गंगाधर तिलक को ही सवारकर अपना गुरु मानते थे। वर्ष 1901 मार्च में उनका विवाह ̔यमुनाबाई ̕ से हो गया था। वर्ष 1902 में उन्होंने स्नातक के लिए पुणे के ̔फग्र्युसन कॉलेज में दाखिला लिया। आर्थिक स्थिति अच्छी न होने के कारण उनके स्नातक की शिक्षा का खर्च उनके ससुर यानी यमुनाबाई के पिता ने उठाया। राजनैतिक गतिविधियाँ पुणे में उन्होंने ̔अभिनव भारत सोसाइटी ̕का गठन किया और बाद में स्वदेशी आंदोलन का भी हिस्सा बने। कुछ समय बाद वह तिलक के साथ ̔स्वराज दल ̕में शामिल हो गए। उनके देश भक्ति से ओप-प्रोत भाषण और स्वतंत्रता आंदोलन के गतिविधियों के कारण अंग्रेज सरकारने उनकी स्नातक की डिग्री ज़ब्त कर ली थी। वर्ष 1906 जून में बैरिस्टर बनने के लिए वे इंग्लैंड चले गए और वहां भारतीय छात्रों को भारत में हो रहे ब्रिटिश शासन के विरोध में एक जुट किया। उन्होंने वहीं पर ̔आजाद भारत सोसाइटी का गठन किया। सावरकर ने अंग्रेजों से भारत को मुक्त कराने के लिए हथियारों के इस्तेमाल की वकालत की थी और इंग्लैंड में ही हथियारों से लैस एक दल तैयार किया था।

 

वर्ष 1909 में मदनलाल धिंगरा, सावरकर के सहयोगी, ने वायसराय, लार्ड कर्जन पर असफल हत्या के प्रयास के बाद सर विएली को गोली मार दी। उसी दौरान नासिक के तत्कालीन ब्रिटिश कलेक्टर ए.एम.टी जैक्सन की भी गोली मारकर हत्या कर दी गयी थी। इस हत्या के बाद सावरकर पूरी तरह ब्रिटिश सरकार के चंगुल में फंस चुके थे। उसी दौरान सावरकर को 13 मार्च 1910 को लंदन में कैद कर लिया गया।अदालत में उनपर गंभीर आरोप लगाये गए, और 50 साल की सजा सुनाई गयी। उनको काला पानी की सज़ा देकर अंडमान के सेलुलर जेलभेज दिया गया और लगभग 14 साल के बाद रिहा कर दिया गया। वहां पर उन्होंने कील और कोयले से कविताएं लिखीं और उनको याद कर लिया था। दस हजार पंक्तियों की कविता को जेल से छूटने के बाद उन्होंने दोबारा लिखा। वर्ष 1920 में महात्मा गाँधी, विट्ठलभाई पटेल और बाल गंगाधर तिलक ने सावरकर को रिहा करने की मांग की। 2 मई 1921 में उनको रत्नागिरी जेल भेजा गया और वहां से सावरकर को यरवदा जेल भेज दिया गया। रत्नागिरी जेल में उन्होंने ̔हिंदुत्व पुस्तक ̕की रचना की। वर्ष 1924 में उनको रिहाई मिली मगर रिहाई की शर्तों के अनुसार उनको न तो रत्नागिरी से बाहर जाने की अनुमति थी और न ही वह पांच साल तक कोई राजनीति कार्य कर सकते थे। रिहा होने के बाद उन्होंने 23 जनवरी 1924 को ̔रत्नागिरी हिंदू सभा का गठन किया और भारतीय संस्कृति और समाज कल्याण के लिए काम करना शुरू किया। थोड़े समय बाद सावरकर तिलक की स्वराज पार्टी में शामिल हो गए और बाद में हिंदू महासभा नाम की एक अलग पार्टी बना ली। वर्ष 1937 में अखिल भारतीय हिंदू महासभा के अध्यक्ष बने और आगे जाकर भारत छोड़ो आंदोलन ̕का हिस्सा भी बने। सावरकर ने पाकिस्तान निर्माण का विरोध किया और गांधीजी को ऐसा करने के लिए निवेदन किया। नाथूराम गोडसे ने उसी दौरान महात्मा गांधी की हत्या कर दी जिसमें सावरकर का भी नाम आया। सावरकर को एक बार फिर जेल जाना पड़ा परंतु साक्ष्यों के अभाव में उन्हें रिहा कर दिया गया। अपने जीवनकाल में सावरकर एक मात्र ऐसे व्यक्ति थे जिनको दो बार आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई गयी थी। उनके द्वारा ही तिरंगे के बीच में धर्म चक्र लगाने का सुझाव सर्वप्रथम दिया गया था। आजादी के बाद उनको 8 अक्टूबर 1951 में उनको पुणे विश्वविद्यालयन ने डी.लिट की उपाधि दी। 1 फरवरी 1966 को उन्होंने मृत्युपर्यन्त उपवास करने का निर्णय लिया था। 26 फरवरी 1966 को उन्होंने मुम्बई में अपना पार्थिव शरीर त्याग दिया और चिर निद्रा में लीन हो गए।
 

Tuesday, 24 November 2020

कुब्जा सुंदरी का प्रेम

 


कुब्जा सुंदरी का प्रेम


कुब्जा कंस की दासी थी जो कि प्रतिदिन कंस के लिए सुगंधित चंदन लेप ले जाती थी । 


भगवान ने कुब्जा को सुंदरी कह कर पुकारा क्योंकि ब्रजवासियों को चंदन की जरूरत थी । 


भगवान ने कहा कि हे सुंदरी ! तुम कौन हो ? कुब्जा ने यह ‘सुंदरी’ शब्द अपने लिए कभी नहीं सुना था । उसने सोचा कि जो वास्तविक सुंदर हो, वहीं सुंदरी कह सकता है । 


सुंदरता की परिभाषा यह नहीं है कि सब असुंदर हों और उनके सामने हम सुंदर लगे । सुंदरता की परिभाषा तो यह है कि जिनकी नजर में कोई असुंदर न हो । 


कुब्जा ने भगवान से कहा कि तुम तो बिल्कुल सुंदर हो । कुब्जा ने अपना परिचय दिया कि ‘मैं कंस की दासी हूं और मेरा नाम त्रिवक्रा है ’ । 


त्रिवक्रा का मतलब है कि काम, क्रोध और लोभ तीन दुर्गुण रूप । भगवान ने कहा कि मेरा नाम त्रिविक्रम है । हम दोनों मिलते – जुलते हैं । 


भगवान ने एक उंगली कुब्जा की ठोड़ी के नीचे लगायी और उसे टेढ़ी से सीधा कर दिया और कुब्जा त्रिवक्रा (जिसका शरीर तीन जनग से टेढ़ा था ) से परम सुंदरी बन गयी । इसका मतलब है कि भगवान के आश्रय से त्रिवक्रा बुद्धि भी शुद्ध हो जाती है । त्रिवक्रा ने त्रिवक्रम सहित सभी को तिलक लगाया । 


हमारी बुद्धि जब कंस जैसे विषयासक्तों के संग में रहेगी तो उसमें त्रिदोष आएंगे : काम, क्रोध और लोभ । वह बुद्धि असुंदर होगी । जब वह बुद्धि प्रभु के चरणो को स्वीकार कर लेती है, तब वह सुंदर बन जाती है ।

Saturday, 21 November 2020

चम्पक रमन पिल्लई


जन्म: 15 सितम्बर 1891, तिरुवनंतपुरम, केरल

मृत्यु: 26 मई, 1934, जर्मनी

 

कार्य क्षेत्र: स्वाधीनता सेनानी

 

चम्पक रमन पिल्लई एक भारतीय राजनैतिक कार्यकर्ता और क्रांतिकारी थे। हालाँकि उनका जन्म भारत में हुआ था पर उन्होंने अपने जीवन का ज्यादातर भाग जर्मनी में बिताया। पिल्लई का नाम उन महान क्रांतिकारियों में शामिल है जिन्होंने अपना सबकुछ दांव पर लगाकर देश की आजादी के लिए प्राण गंवा दिए। वे एक ऐसे वीर थे जिन्होंने विदेश में रहते हुए भारत की आज़ादी की लड़ाई को जारी रखा और एक विदेशी ताकत के साथ मिलकर भारत में अंग्रेजी हुकुमत का सफाया करने की कोशिश की। हमारा दुर्भाग्य है कि आज उनको बहुत कम लोग ही याद करते हैं पर ये देश उनकी कुर्बानी का सदैव आभारी रहेगा।

 

प्रारंभिक जीवन

 

चम्पक रमन पिल्लई का जन्म 15 सितम्बर 1891 को त्रावनकोर राज्य के तिरुवनंतपुरम जिले में एक सामान्य माध्यम वर्गीय परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम चिन्नास्वामी पिल्लई और माता का नाम नागम्मल था। उनके पिता तमिल थे पर त्रावनकोर राज्य में पुलिस कांस्टेबल की नौकरी के कारण तिरुवनंतपुरम में ही बस गए थे। उनकी प्रारंभिक और हाई स्कूल की शिक्षा थैकौड़ (तिरुवनंतपुरम) के मॉडल स्कूल में हुई थी। चम्पक जब स्कूल में थे तब उनका परिचय एक ब्रिटिश जीव वैज्ञानिक सर वाल्टर स्ट्रिकलैंड से हुआ, जो अक्सर वनस्पतिओं के नमूनों के लिए तिरुवनंतपुरम आते रहते थे। ऐसे ही एक दौरे पर उन्होंने चम्पक और उसके चचेरे भाई पद्मनाभा पिल्लई को साथ आने का निमंत्रण दिया और वे दोनों उनके साथ हो लिए। पद्मनाभा पिल्लई तो कोलम्बो से ही वापस आ गया पर चम्पक सर वाल्टर स्ट्रिकलैंड के साथ यूरोप पहुँच गए। वाल्टर ने उनका दाखिला ऑस्ट्रिया के एक स्कूल में करा दिया जहाँ से उन्होंने हाई स्कूल की परीक्षा पास की।

 

यूरोप में जीवन

 

स्कूली पढ़ाई पूरी करने के बाद चम्पक ने इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए एक तकनिकी संस्थान में दाखिला ले लिया। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान उन्होंने इंटरनेशनल प्रो इंडिया कमेटी की स्थापना की। इसका मुख्यालय ज्यूरिख में रखा गया। लगभग इसी समय जर्मनी के बर्लिन शहर में कुछ प्रवासी भारतीयों ने मिलकर इंडियन इंडिपेंडेंस कमेटी नामक एक संस्था बनायी थी। इस दल के सदस्य थे वीरेन्द्रनाथ चटोपाध्याय, भूपेन्द्रनाथ दत्त, ए. रमन पिल्लई, तारक नाथ दास, मौलवी बरकतुल्लाह, चंद्रकांत चक्रवर्ती, एम.प्रभाकर, बिरेन्द्र सरकार और हेरम्बा लाल गुप्ता। अक्टूबर 1914 में चम्पक बर्लिन चले गए और बर्लिन कमेटी में सम्मिलित हो गए और इसका विलय इंटरनेशनल प्रो इंडिया कमेटी के साथ कर दिया। इस कमेटी का मकसद था यूरोप में भारतीय स्वतंत्रता से जुड़ी हुई सभी क्रांतिकारी गतिविधियों पर निगरानी रखना। लाला हरदयाल को भी इस आन्दोलन में शामिल होने के लिए राजी कर लिया गया। जल्द ही इसकी शाखाएं अम्स्टरडैम, स्टॉकहोम, वाशिंगटन, यूरोप और अमेरिका के दूसरे शहरों में भी स्थापित हो गयीं।

 

इंडियन इंडिपेंडेंस कमेटी और ग़दर पार्टी तथाकथित हिन्दू-जर्मन साजिश में शामिल थी। जर्मनी ने कमेटी के ब्रिटिश विरोधी गतिविधियों को हर तरह की मदद प्रदान की। चम्पक ने ए. रमन पिल्लई के साथ मिलकर कमेटी में काम किया। बाद में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस पिल्लई से मिले। ऐसा माना जाता है कि जय हिन्द नारा पिल्लई के दिमाग की ही उपज थी।

 

प्रथम विश्व युद्ध में जर्मनी की हार के बाद पिल्लई जर्मनी में ही रहे। बर्लिन की एक फैक्ट्री में उन्होंने एक तकनिसियन की नौकरी कर ली थी। जब नेता जी विएना गए तब पिल्लई ने उनसे मिलकर अपने योजना के बारे में उन्हें बताया।

 

भारत के अस्थायी सरकार में विदेश मंत्री

 

राजा महेंद्र प्रताप और मोहम्मद बरकतुल्लाह ने अफगानिस्तान की राजधानी काबुल में भारत की एक अस्थायी सरकार की स्थापना 1 दिसम्बर 1915 को की थी। महेंद्र प्रताप इसके राष्ट्रपति थे और बरकतुल्लाह प्रधानमंत्री। पिल्लई को इस सरकार में विदेश मंत्री का कार्यभार सौंपा गया था। दुर्भाग्यवश प्रथम विश्व युद्ध में जर्मनी के हार के साथ अंग्रेजों ने इन क्रांतिकारियों को अफगानिस्तान से बाहर निकाल दिया।

 

इस दौरान जर्मनी के अधिकारी अपने निजी स्वार्थ के लिए भारतीय क्रांतिकारियों की सहायता कर रहे थे। हालाँकि भारतीय क्रांतिकारियों ने जर्मन अधिकारियों को ये साफ़ कर दिया था कि दुश्मन के खिलाफ लड़ाई में वे सहभागी हैं पर जर्मनी के अधिकारी भारतीय क्रांतिकारियों के ख़ुफ़िया तंत्र को अपने फायदे के लिए उपयोग करना चाहते थे।

 

विवाह और मृत्यु

 

सन 1931 में चम्पक रमन पिल्लई ने मणिपुर की लक्ष्मीबाई से विवाह किया। उन दोनों की मुलाकात बर्लिन में हुई थी। दुर्भाग्यवस विवाह के उपरान्त चम्पक बीमार हो गए और इलाज के लिए इटली चले गए। ऐसा माना जाता है कि उन्हें जहर दिया गया था। बीमारी से वे उबार नहीं पाए और 28 मई 1934 को बर्लिन में उनका निधन हो गया। उनकी पत्नी लक्ष्मीबाई उनकी अस्थियों को बाद में भारत लेकर आयीं जिन्हें पूरे राजकीय सम्मान के साथ कन्याकुमारी में प्रवाहित कर दिया गया।

 

टाइम लाइन (जीवन घटनाक्रम)

 

1891: तिरुवनंतपुरम में जन्म हुआ

 

1906: सर वाल्टर स्ट्रिकलैंड के साथ यूरोप चले गए और ऑस्ट्रिया के एक स्कूल में दाखिल ले लिया

 

1914: इन्तेर्नतिओन प्रो-इंडिया कमेटी की जुरिख में स्थापना; इसके अध्यक्ष बने

 

1914: अक्टूबर में बर्लिन गए जहाँ इंडियन इंडिपेंडेंट कमेटी में शामिल हो गए

 

1915: अफगानिस्तान में गठित भारत की अस्थायी सरकार में विदेश मंत्री बनाये गए

 

1919: विएना में सुभाष चन्द्र बोस से मिले

 

1931: मणिपुर निवासी लक्ष्मीबाई से विवाह किया

 

1934: 26 मई को बर्लिन में निधन हो गया

महान ऋषि पिप्पलाद

पिप्पलाद उपनिषद्‍कालीन एक महान ऋषि एवं अथर्ववेद का सर्व प्रथम संकलकर्ता थे। पिप्पलाद का शब्दार्थ, 'पीपल के फल खाकर जीनेवाला' (पिप्पल...